scriptहिंसा के प्रचारक नहीं, सकारात्मक अनुशासन के पक्षधर बनें शिक्षक | Not to be propagators of violence but advocates of positive discipline | Patrika News
ओपिनियन

हिंसा के प्रचारक नहीं, सकारात्मक अनुशासन के पक्षधर बनें शिक्षक

शिक्षा, शिक्षक और कक्षा: सीखने की ‘बाल-केन्द्रित और लोकतांत्रिक’ प्रक्रिया का हिस्सा क्यों हो ‘अनुशासन और दंड’ की प्रक्रिया
आधुनिक समाज व्यवस्था में विद्यालय एक ऐसी उप-व्यवस्था है, जिसमें विद्यार्थी, शिक्षायी अनुभवों के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया से गुजरते हुए ‘स्व एवं सृष्टि’ को समझने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करता है।

Oct 03, 2023 / 11:32 pm

Nitin Kumar

हिंसा के प्रचारक नहीं, सकारात्मक अनुशासन के पक्षधर बनें शिक्षक

हिंसा के प्रचारक नहीं, सकारात्मक अनुशासन के पक्षधर बनें शिक्षक

डॉ. संजय शर्मा
प्राध्यापक, डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर
………………………………………………………………….

शिक्षा की मूल परम्परा में अनुशासन की अवधारणा को न केवल रूढ़िबद्ध स्वरूप में समझा गया, बल्कि व्यवहार में भी लाया जाता रहा है। वस्तुत: अनुशासन का मूलगामी विचार एक सामाजिक संकल्पना है, जिसे कालांतर में एक शिक्षाशास्त्रीय विचार-पद्धति के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा है। आधुनिक मनोविज्ञान की व्यवहारवादी चिंतनधारा ने बीती सदी से ही अनुशासन के विचार एवं अभ्यास को व्यक्तित्व विकास की एक महत्त्वपूर्ण खोज के रूप में न केवल प्रचलित किया बल्कि इस हेतु कई मानकों का निर्माण भी किया, जिसके कारण शिक्षा के औपचारिक ढांचे में अनुशासन को एक गंभीर एवं कारगर औजार के रूप में स्थापित होने का अवसर मिला। अनुशासन की व्यवहारवादी कसौटियों ने जहां एक ओर अध्यापक केंद्रित शिक्षण प्रक्रिया को मजबूत आधार दिया, वहीं दूसरी ओर बच्चे की नैसर्गिक ज्ञान क्षमताओं को लगातार सीमित एवं संकुचित किया। इसका असर बच्चे के मानसिक कौशल पर नियंत्रण के रूप में देखा जा सकता है।
आधुनिक समाज व्यवस्था में विद्यालय एक ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक एवं शिक्षायी उप-व्यवस्था है, जिसमें विद्यार्थी, शिक्षायी अनुभवों के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया से गुजरते हुए ‘स्व एवं सृष्टि’ को समझने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करता है। विद्यालय का आनंददायी ज्ञानात्मक परिवेश जहां उसमें भविष्य के प्रति सकारात्मक एवं सार्थक बोध उत्पन्न करता है, वहीं विद्यालय का नीरस, हिंसक एवं विषमतामूलक वातावरण उसके व्यक्तित्व को कुंठित, उदासीन एवं नकारात्मक बना देता है। सीखने-सिखाने के संदर्भ में अनुशासन एवं दंड के लिए उठाए जाने वाले तथाकथित कारगर कदम वस्तुत: शिक्षकों की वृहद् सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना का ही विस्तार होते हैं। शैक्षिक-समाजशास्त्री बेसिल बर्नस्टीन के अनुसार अनुशासन के मनोवैज्ञानिक मानकों एवं कोटियों को कक्षा में प्रयुक्त करते समय अक्सर शिक्षक अपने सामाजिक अनुभवों एवं उनसे उपजे पूर्वाग्रहों को अदृश्य रूप में प्रयुक्त करने लगते हैं।
चिंतनीय पहलू यह है कि आग्रही शिक्षक को ऐसा करते हुए संज्ञान भी नहीं होता है कि वह सत्तात्मक औजारों के माध्यम से कक्षा में अनुशासन की स्थापना कर रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की प्रस्तावना रेखांकित करती है कि बच्चे के व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए भय एवं हिंसा से मुक्त वातावरण का होना अनिवार्य है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक उत्पीडऩ को पूर्ण रूप से समाप्त करके ही शिक्षक उनके लिए उन्मुक्त शिक्षायी वातावरण निर्मित कर सकता है। चिंताजनक स्थिति यह है कि अमूमन एक भारतीय शिक्षक इस बात को आत्मसात किए रहता है कि बच्चों को नियंत्रण में रख कर ही गुणवत्तापूर्ण तरीके से सिखाया जा सकता है। इस कारण कक्षा में कठोर अनुशासन एवं बच्चे पर नियंत्रण एक अनिवार्य एवं नैसर्गिक सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के रुप में स्वीकार्य होने लगता है।
हाल ही में मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) एवं कश्मीर के विद्यालयों में तथा बांसवाड़ा (राजस्थान) के घाटोल के छात्रावास में घटित शारीरिक हिंसा की घटनाओं को न केवल समाजशास्त्रीय नजरिये से बल्कि शिक्षायी चश्मे से भी देखा और समझा जाना चाहिए। मुजफ्फरनगर के एक निजी विद्यालय में जो हुआ वह इसी संदर्भ में विचारणीय है। जहां शिक्षिका बच्चे के द्वारा कुछ गणितीय सवाल हल नहीं कर पाने और गृहकार्य को समय पर पूरा नहीं कर सकने को ‘अनुशासनहीनता’ और ‘नियंत्रण का अभाव’ मानती है। वह इस घटना के लिए उत्तरदायी कारक के रूप में शैक्षिक-मनोविज्ञान को नहीं बल्कि बच्चे की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक पृष्ठभूमि को जिम्मेदार मानती है। वस्तुत: यह पारम्परिक शिक्षणशास्त्रीय समझ ही है, जिसमें अनुशासन की स्थापना के लिए दंड का विधान अपरिहार्य हो जाता है। ‘अनुशासन और दंड’ की प्रक्रिया में बच्चों की भागीदारी के माध्यम से हिंसात्मक गतिविधियों को प्राय: सीखने की ‘बाल-केन्द्रित और लोकतांत्रिक’ प्रक्रिया के रूप में स्वीकार्य कर लिया जाता है। सहपाठियों से प्रताडि़त करवाना, उलाहना देना, जातिसूचक और धर्मविशेष को संदर्भित कर आक्षेप करना आदि अनुशासन और दंड के ऐसे छिपे आख्यान हैं, जिन्हें लेकर शिक्षक-अभिभावक प्राय: असहज नहीं होते हैं।
यदि शिक्षक अनुशासन एवं दंड के विधान में हिंसात्मक व्यवहारों को सहज शिक्षायी पद्धति के रूप में स्वीकार करते हैं तो वे वस्तुत: समाज में व्याप्त विषमताओं, वंचनाओं एवं अन्यायपूर्ण संरचनाओं को बरकरार रखने के लिए बड़े ही अनूठे ढंग से अनुकूलित होने लगते हैं। महात्मा गांधी ने आत्म-नियंत्रण के माध्यम से अनुशासन की वकालत की। उन्होंने आत्म-अनुशासन पर जोर दिया जो भीतर से उत्पन्न होता है। आत्म-संयम, निर्भयता, उपयोगिता और आत्म-बलिदान के शुद्ध जीवन से ही आत्म-अनुशासन उत्पन्न होता है। आज आवश्यकता गांधी की नई तालीम में विद्यमान सकारात्मक अनुशासन को कक्षा में स्थान देने की है, क्योंकि बच्चों की सृजनात्मकता भयमुक्त वातावरण एवं सकारात्मक अनुशासन से ही पोषित हो सकती है। जो अध्यापक शांति के प्रति रुझान नहीं रखते, वे अनजाने में हिंसा के प्रचारक बनने लगते हैं, वे समस्या को हल करने की रणनीति के रूप मे हिंसा को प्रतिध्वनित करते हुए अनुकरणीय बना देते हैं।

Hindi News/ Prime / Opinion / हिंसा के प्रचारक नहीं, सकारात्मक अनुशासन के पक्षधर बनें शिक्षक

ट्रेंडिंग वीडियो