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नया-नया नोटा

पांच राज्यों की हाल ही हुई विधानसभा चुनाव प्रक्रिया की गणित में एक नया स्…

Jan 16, 2015 / 12:12 pm

Super Admin

गुलाब कोठारी
पांच राज्यों की हाल ही हुई विधानसभा चुनाव प्रक्रिया की गणित में एक नया स्वरूप जुड़ा हुआ था। ईवीएम मशीन में सबसे नीचे का बटन नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं)।

चूंकि यह प्रयोग देश में पहली बार था, इसलिए लोगों के मन में इस बटन के प्रभावों के प्रति जिज्ञासा भी थी, कुछ मनचले मजे भी लेना चाहते थे, तो कुछ बागियों, प्रतिद्वंद्वियों तथा अवसरवादियों ने इसे कमाई का जरिया भी बना लिया।

राजस्थान विधानसभा की सभी दो सौ सीटों के लिए चुनाव हुए थे। नोटा का उपयोग लगभग प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में किया गया। इनमें ग्यारह क्षेत्र ऎसे थे, जहां नोटा मतों की संख्या जीत की संख्या से अधिक थी।

मध्यप्रदेश में 230 में से 25 और छत्तीसगढ़ में 90 में से 15 विधानसभा क्षेत्र ऎसे रहे, जहां हार-जीत का अंतर नोटा मतों से कम रहा। कमोबेश यही हाल दिल्ली-मिजोरम में रहा। फिर भी प्रत्याशी जीत गए, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का फरमान था। हमने ऎसी ही आशंका प्रकट भी की थी, एक दिसम्बर के अंक में।

“हां, एक बार याद दिला दूं कि आज पहली बार, पुराने मतदाताओं को “नोटा” का नया बटन भी वोटिंग मशीन पर मिलेगा। इसे छूना भी मत राजनेताओं यानी कि हमारे प्रतिनिधियों ने हमें बेवकूफ बनाने के लिए अथवा हमारे विवेक की परीक्षा लेने के लिए इस बटन की अगवानी की है।

वे “जिताने वाले” खोटे लोगों को भी हमारा प्रतिनिधि बनाकर हमको अपमानित करना चाहते हैं। आपको खोटे प्रत्याशियों के बीच कोई ईमानदार व्यक्ति नजर नहीं आए तो निश्चित है कि आप “नोटा” का बटन दबाकर यह कहना चाहोगे कि मुझे इनमें से कोई पसंद नहीं।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से आपका मत गया रद्दी की टोकरी में। नोटा के कारण खोटा आदमी ही जीतेगा, यह पक्की बात है। चुनाव रद्द नहीं होगा।” तब ऎसे खोटे प्रत्याशी को विधायक बनाना ही इस कानून का उद्देश्य था क्या? क्या ऎसे लोगों का विधायकों का चयन लोकतंत्र का अपमान नहीं है?

और क्या यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के विवेक पर प्रश्न चिन्ह नहीं माना जाएगा? इस व्यवस्था ने तो सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही धूल में मिला दिया। मतदाताओ का भरपूर अपमान हुआ। सर्वोच्च न्यायालय यह भी दलील नहीं दे सकता कि सरकार के दबाव में ऎसा किया था।

एक अन्य स्वरूप भी नोटा का उभरकर आया। पूरे चुनाव क्षेत्रों पर दृष्टि डालें तो एक तथ्य उजागर होगा, जो आपको चौंकाएगा जरूर। राज्य में सात संभाग हैं। जयपुर संभाग में औसत नोटा मत सबसे कम रहा। प्रतिविधानसभा क्षेत्र में औसतन 1867 मत पड़े। भरतपुर संभाग में 1950, बीकानेर संभाग में 2443 मत पड़े।

कोटा का औसत कुछ ऊपर उठा। यहां प्रतिक्षेत्र औसत नोटा मत 3530 रहा। जोधपुर और अजमेर संभाग में क्रमश: 3212 और 3191 मत रहे। एक संभाग, उदयपुर, जो कि आदिवासी संभाग के रूप में जाना जाता है, वहां प्रतिक्षेत्र नोटा मत 5077 थे। इसी संभाग में 6 सीटों पर नोटा मत विजयी अंकों से कहीं अधिक थे।

इनके अलावा भी राज्य में 5 अन्य सीटों पर नोटा मत अधिक थे। प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी मतदाता शेष्ा प्रदेश से अधिक बुद्धिमान हैं, जिसने नोटा में औसत 5077 मत हर विधानसभा क्षेत्र में डाले? नोटा मत या बटन के बारे में सर्वाधिक प्रचार-प्रसार या प्रशिक्षण क्या इसी क्षेत्र के मतदाताओं को उपलब्ध कराया गया? क्या इनके हर क्षेत्र में सारे ही प्रत्याशी इतने खराब थे?

ऎसा तो नहीं था। न आदिवासी ऎसे चालाक ही हैं। यह सारा खेल सत्ता की साम-दाम-दण्ड -भेद की लड़ाई का है। और एक ही संभाग का हिस्सा है। प्रदेश में सम्पूर्ण कांग्रेस का नेतृत्व तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ही किया था। केवल उदयपुर संभाग में दूसरा गुट भी सक्रिय था। दोनों ने कमर कस रखी थी कि “हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।” इतने बागी उम्मीदवार भी इनके इशारों पर खड़े थे।

आप किसी को कहो कि अपने बागी को बैठने के लिए कह दो, तो उत्तर मिलता था कि क्या जरूरत है। प्रत्याशी सामने वाले गुट का है। हारने दो साले को…..। दोनों ही गुट के लोगों ने एक-दूसरे के प्रत्याशियों को हराने का भरसक प्रयास किया। दिन-रात क्या, खून पसीना एक कर दिया। बिल्ली के भाग का छींका टूटा। प्रतिद्वंद्वी दल मौके की ताक में ही बैठे थे। थैले का मंुह खोल दिया। सारे अंक तय हो गए। सारे समीकरण नए सिरे से बदल गए।

हर क्षेत्र में एक नई आवाज मुखरित हो उठी। मतदान केन्द्र में प्रवेश पूर्व सब सुन रहे थे- “सबसे नीचे वाला बटन अपना है। उसी को दबाना है।” और नोटा प्रभावी हो गया। राजस्थान के करीब 6 लाख नोटा वोटों में अकेले उदयपुर संभाग का अंक 1,42,174 हो गया। किसी भी संभाग का अंक इतना नहीं है। नोटा “नोटों” में बदल गया। चुनाव की रणनीति धरी की धरी रह गई।

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