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ओपिनियन

कृषि क्षेत्र में निजीकरण की दस्तक देते प्रतिध्वनित होते हैं किसान बिल

निजी क्षेत्र के एकाधिकार का विकल्प किसान उत्पादक संघ हो सकते हैं। ‘अमूल’ इसका विश्वस्तरीय उदाहरण है।

 

नई दिल्लीOct 04, 2020 / 02:36 pm

shailendra tiwari

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किसानों के लिए लाए गए तीन विधेयक कहीं न कहीं कृषि क्षेत्र में निजीकरण की दस्तक देते प्रतिध्वनित होते हैं। कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) और नामित मंडियों के बाहर निजी व्यापारियों को भी कृषि उत्पादों की खरीद की अनुमति होगी, वह भी बिना बाजार शुल्क, कर या लेवी के। पहले भी ये कर किसान नहीं, बल्कि खरीददार अदा करते थे।
नए विधेयकों से व्यापारी लाभान्वित होंगे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि किसान घाटे में रहेंगे। हालांकि राज्य सरकारों को राजस्व का नुकसान होगा। जैसे कि पंजाब सरकार को विभिन्न शुल्कों के तहत कृषि उपज की खरीद-बिक्री से प्रतिवर्ष 4000 करोड़ रुपए की आय होती है, जिसमें अचानक काफी कमी आ सकती है। इसीलिए पंजाब के सभी राजीतिक दल इस विधेयक के विरोध में उतर आए हैं।
नए विधेयक में विवादों का निपटारा एसडीएम के समक्ष करने की व्यवस्था है, अदालतों का दरवाजा खटखटाने की अनुमति नहीं है। सरकार व्यापार पर कोई अंकुश न लगा सके, इसके लिए ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन किया गया है। सरकार तभी प्रतिबंध लगा सकती है, जबकि खराब न हो सकने वाले खाद्यान्न की कीमतें 50 फीसदी से ज्यादा तथा बागवानी उत्पादों की कीमतें 100 फीसदी से ज्यादा हो जाएं। इसका लाभ उपभोक्ताओं को होगा या बड़े किसानों को।

पंजाब-हरियाणा में सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर तकरीबन सौ फीसदी फसलें खरीद लेती हैं। विरोध का कारण यह है कि किसानों को एमएसपी संरक्षण खत्म होने की आशंका है। देश में चावल और गेहूं की कुल पैदावार का करीब दो तिहाई भाग खुले बाजार में बेचा जाता है। अन्य फसलों की खरीद बहुत कम है। विधेयकों में इसका कोई समाधान नहीं है।
नए बिलों में संशोधन कर बताया जाना चाहिए कि उपज की कीमतें तय करने के लिए खरीद की मात्रा और एमएसपी फॅार्मूले में कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा, तो हो सकता है विरोध कुछ थमे। साथ ही विधेयक में यह भी आश्वासन दिया जाए कि हवाई अड्डों की तरह मंडियों का निजीकरण नहीं किया जाएगा। इससे किसानों और विपक्ष दोनों को संतुष्ट किया जा सकेगा।

अगर हम आगे चल कर क्षेत्र में निजी कंपनियों को एकाधिकार जमाने दें और निजी मंडियों को कर मुक्त कर दें तो क्या होगा? दक्षिण अमरीका में बड़े फूड कॉर्पोरेशन के ऐसे उदाहरण हैं जो कृषि उत्पादों पर एकाधिकार जमाए हैं और खरीद मूल्य गिराते जा रहे हंै।

नए विधेयक कुछ मझोले व बड़े किसानों को लाभ तो पहुंचाएंगे लेकिन ज्यादा फायदा निजी क्षेत्र को होगा। छोटे किसान तो बाजार तक ही नहीं पहुंच पाते, इसलिए उनकी परेशानी खत्म नहीं होगी। कृषि संबंधी मुद्दों को राजनेता राजनीति के चश्मे से, अर्थशास्त्री व बुद्धिजीवी सैद्धांतिक नजरिये से और कॉर्पोरेट क्षेत्र मुनाफे और विकास के तौर पर देख रहे हैं, छोटे किसान की विचारधारा कहीं नजर नहीं आ रही।
कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश की राह सुगम करने की दलील, दरअसल सरकारी एफसीआई व्यवस्था की नाकामियों की ओर इशारा करती है। लेकिन निजी क्षेत्र का एकाधिकार ही अकुशल सरकारी संस्था का एकमात्र विकल्प नहीं है। किसान उत्पादक संघ इसका विकल्प हो सकते हैं, बशर्ते वे पेशेवर तरीके से लाभकारी कारोबार की तरह संचालित किए जाएं। भारत का अपना ‘अमूल’ इसका विश्वस्तरीय उदाहरण है।

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