PATRIKA OPINION टिकट वितरण में खामियों ने तोड़ी भाजपा की उम्मीदें
अब तक कांग्रेस ही नेताओं के बड़बोले बयानों से परेशान थी लेकिन अब यह बीमारी भाजपा में भी आम हो चली है। ऐसे में ‘चार सौ पार’ होती तो कैसे? भाजपा अपने आपको अनुशासित पार्टी बताती जरूर है लेकिन क्या जनसंघ के जमाने का अनुशासन अब पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं में बचा है। अधिकांश नेताओं के लिए पद पाना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। भाजपा कार्यकर्ता भी सुविधा भोगी होते जा रहे हैं।
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चुनाव नतीजे आने के साथ ही देश भर में भाजपा के प्रदर्शन को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। ये चर्चा वे लोग भी कर रहे हैं जिनका राजनीति से दूर-दूर का वास्ता नहीं है। यह इसलिए भी कि चुनाव का मतलब सिर्फ नंबर गेम ही नहीं है। सत्ता पर काबिज होने के लिए नंबर गेम महत्त्वपूर्ण हो सकता है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि किसी दल ने उस नंबर को कैसे पाया और कैसे गंवाया? पिछले चुनाव में ३०३ सीटें जीतने वाली भाजपा उतरकर २४० पर कैसे आ गई, इसको लेकर तो भाजपा को आत्मावलोकन करना ही चाहिए।
आम जनता की नजर से देखें तो सीटें घटने के दो-तीन बड़े कारण साफ समझ में आते हैं। अति आत्मविश्वास और आयातित उम्मीदवारों के सहारे चुनावी नैया पार लगाने का भ्रम भाजपा को ले डूबा। जितनी मेहनत प्रचार के दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की, एकाध नेताओं को छोड़कर शायद किसी ने नहीं की। भाजपा की बात करें तो उसके अनेक नेता तो अपने क्षेत्रों में ही उलझे रहे। कुछ को खुद की चिंता रही तो कुछ को अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को जितवाने की। वहीं ज्यादातर ने दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों में खानापूर्ति की औपचारिकता ही निभाई। ऐसे में नतीजे मनमाफिक आते तो कैसे? अपेक्षित सफलता नहीं मिलने का दूसरा बड़ा कारण दलबदलू और परिवारवाद के मोह में फंसकर टिकट बांटना रहा। टिकट वितरण में स्थानीय नेताओं की राय के मुकाबले आलाकमान की मर्जी हावी रही। दो-दो, तीन-तीन बार हारे नेताओं को टिकट थमाने का संदेश भी अच्छा नहीं गया। दलबदलू और परिवारवादी संस्कृति ने भी पार्टी की जीत की संभावनाओं पर ब्रेक लगाया।
अब तक कांग्रेस ही नेताओं के बड़बोले बयानों से परेशान थी लेकिन अब यह बीमारी भाजपा में भी आम हो चली है। ऐसे में ‘चार सौ पार’ होती तो कैसे? भाजपा अपने आपको अनुशासित पार्टी बताती जरूर है लेकिन क्या जनसंघ के जमाने का अनुशासन अब पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं में बचा है। अधिकांश नेताओं के लिए पद पाना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। भाजपा कार्यकर्ता भी सुविधा भोगी होते जा रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि अनेक राज्यों में पार्टी ने इस बार भी शानदार प्रदर्शन किया है। लेकिन जिन राज्यों के भरासे पार्टी को संख्याबल में मजबूती की उम्मीद थी वहीं सीटें उससे छिटक गईं। पार्टी अब हार के कारणों की समीक्षा करे तो ध्यान रखना चाहिए कि यह काम ईमानदारी से हो। हारे तो क्यों हारे और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
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