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रस्मी आयोजन

रोशनी की जगमगाहट और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में कोई हर्ज
नहीं है लेकिन उनमें भी राज्य की कला और संस्कृति

Mar 29, 2015 / 11:56 pm

शंकर शर्मा

क्या यह हकीकत नहीं कि देश में स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस सरकारी समारोह में तब्दील होकर रह गए हैं। दिल्ली से लेकर राज्यों की राजधानियों और शहरों-कस्बों तक ऎसे दिवसों पर औपचारिक सरकारी तामझाम के अलावा और कुछ नजर ही नहीं आता। स्वाधीनता दिवस हो अथवा गणतंत्र दिवस, सरकारी इमारतों पर रोशनी, परेड और नेताओं के भाषण छाए रहते हैं। टीवी चैनलों, रेडियो पर राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत गाने अवश्य दिवस विशेष का अहसास कराते हैं। यही हाल राज्यों के स्थापना दिवसों का हो गया है।

राजस्थान की स्थापना को सोमवार को 66 साल पूरे हो रहे हैं। इस दिन प्रदेश में स्थापना दिवस धूमधाम से मनाया जाएगा। शहरों-कस्बों में सरकारी होर्डिग, सरकारी भवनों पर जगमग और शहर-कस्बों में स्थापना दिवस समारोहों की खानापूर्ति। हर जगह सरकार ही नजर आएगी, आमजन कहीं नहीं।

ऎसे समारोह मनाने का उद्देश्य क्या माना जाए? क्या समारोह सिर्फ मनाने के लिए ही मनाए जाते हैं? क्या एकाध भाषण और रंगारंग कार्यक्रमोे से ही स्थापना दिवस का मकसद पूरा हो जाता है? क्या सरकारें इस दिन को आने वाले वर्ष के लिए संकल्प दिवस के रूप में नहीं मना सकती हैं? ऎसा कोई बड़ा काम करने पर विचार क्यों नहीं होता ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ अनूठी छाप छोडी जा सके। प्रदेश के लिए, प्रदेश के नागरिकों के लिए अब तक क्या किया गया, आगे क्या किया जा सकता है, इस पर भी मंथन हो सकता है।

सरकार, राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन मिलकर चिंतन क्यों न करें कि 66 सालों में क्या हो सकता था और कितना हो पाया? कहां कमियां रह गई और उन कमियों को कैसे दूर किया जा सकता है? जो शुरूआत अब तक नहीं हो पाई, अब की जाए तो प्रदेश को लाभ मिल सकता है। यह बात सिर्फ राजस्थान पर ही लागू नहीं होती।

हर राज्य के लिए उसका स्थापना दिवस संकल्प दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। मसलन राजस्थान पर्यटन के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान रखता है लेकिन क्या हम उसे विश्व पर्यटन मानचित्र पर वो स्थान दिला पाए जिसका वह अधिकारी है? ऎसे सवालों की तह में जाकर समाधान खोजने की कोशिश हो तो स्थापना दिवस अधिक प्रासंगिक हो सकते हैं। रोशनी की जगमगाहट और सांस्कृतिक कार्यक्रम में हर्ज नहीं है लेकिन उनमें भी राज्य की कला और संस्कृति तो नजर आए।

स्थापना दिवस नाच-गानों के इर्द-गिर्द ही न सिमट जाए। कार्यक्रमों में सरकारी नुमाइंदों की भागीदारी की बजाय जनता की ज्यादा भागीदारी के प्रयास भी नजर आने चाहिए। समारोह स्थल पर जनता की भागीदारी पिछली सीटों तक सिमटी रहने की प्रवृत्ति भी बदलने की जरूरत है। स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस और स्थापना दिवस कार्यक्रम अपना स्वरूप बदलकर जनता के कार्यक्रमों में तब्दील हो जाएं तो इनके आयोजनों में चार चांद लगते देर नहीं लगेगी।


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