अगले कुछ ही दिनों में राहुल गांधी, देश में सबसे ज्यादा समय तक सत्तासीन रहे और १३२ साल पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने वाले हैं। इस पद पर वे निर्विरोध चुने जाएंगे। यह देखा गया है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से कांग्रेस अध्यक्ष पद पर अधिकतर गांधी-नेहरू परिवार का सदस्य ही आसीन रहा है। इतिहास गवाह है कि जब-जब अध्यक्ष पद गांधी-नेहरू परिवार से इतर किसी अन्य व्यक्ति के पास रहा तो पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को वह व्यक्ति स्वीकार्य ही नहीं हुआ।
ऐसे कई मौकों पर पार्टी में विघटन की नौबत आ चुकी है। कांग्र्रेस में अब यह स्थापित स्वीकार्य तथ्य है कि गांधी-नेहरूपरिवार के वंशज ही इस पार्टी को एकजुट रख सकते हैं। उनका नेतृत्व ही इसका अस्तित्व बचाए रख सकता है। हालांकि वर्तमान में कांग्रेस अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। वर्ष १९५१ में पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय जहां कांग्रेस का देश के ९० प्रतिशत हिस्से पर शासन था, वहीं आज यह सिमट कर मात्र १० प्रतिशत हिस्से पर रह गया है।
वर्ष १९९८ में जब सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद संभाला तो भी देश के १९ प्रतिशत हिस्से पर कांग्रेस का शासन था। राहुल गांधी, गांधी-नेहरू परिवार के छठे सदस्य होंगे जो यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालेंगे। वर्ष २००४ से सांसद राहुल गांधी यूं तो लम्बे समय से पार्टी से जुड़े हुए हैं। पहले महासचिव और फिर उपाध्यक्ष के रूप में वे अपना योगदान देते रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सात साल बाद चुनाव होने जा रहा है। १९ साल पार्टी अध्यक्ष रही सोनिया गांधी भी लम्बे समय से पार्टी के दैनिक क्रियाकलापों और निर्णयों से खुद को दूर रखे हुए हैं।
पार्टी के वरिष्ठ नेता जब भी किसी मामले पर उनसे सलाह करने जाते हैं तो वे राहुल से बात करने को कह देती हैं। पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं लेकिन महत्वपूर्ण निर्णय राहुल ही ले रहे हैं। वर्तमान में राहुल के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी कार्यकर्ताओं को निराशा से उबारकर फिर से उनमें नया जोश भरने की होगी। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस लगातार एक के एक बाद राज्यों में चुनाव हारती जा रही है। पहले केन्द्र और फिर राज्यों में होती लगातार पराजयों से कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं में घोर निराशा व्याप्त होती जा रही है।
उन्हें लगता है कि अब कांग्रेस के साथ कोई भविष्य नहीं है। राहुल गांधी की सार्वजनिक छवि भी अभी तक गैर जिम्मेदार राजनेता की ही रही है। उनके बचकाना बयान और जनहित से जुड़ी समस्याओं पर समझ की कमी के चलते अक्सर उन्हें संचार माध्यमों में निशाना बनाया जाता रहा है। खासकर इसे लेकर सोशल मीडिया पर तो लगातार ट्रोल होते रहे हैं। वे अपनी इस छवि को बदलने के लिए काफी मेहनत कर रहे हैं। अब वे बहुत सोच समझकर बयान देते हैं।
अपने गुजरात दौरे के दौरान मैंने यह देखा कि पहले उनकी चुनावी सभाओं में जहां श्रोता उनकी बातों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते थे, वहीं अब उनके भाषणों को ज्यादा संजीदगी से सुना जाने लगा है। लोगों के बीच धीरे-धीरे वे अपनी जगह बनाते जा रहे हैं और राजनेता के तौर पर स्वीकार्य भी होते जा रहे हैं। फिलहाल उन्हें तेज रफ्तार से काम करने की जरूरत है क्योंकि उन्हें लगातार चुनौतियों का सामना करना है। आने वाले समय में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। विशेषतौर पर हिंदी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो कंागे्रस पिछले पन्द्रह सालों से सत्ता से दूर है। कुछ ही दिनों में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों में तो राहुल जोर-शोर से जुटे हुए हैं। राहुल का यह बदला रूप देखकर पार्टी कार्यकर्ताओं का खोया आत्मविश्वास फिर से लौटने लगा है। वे भी अब गुजरात में कांग्रेस की जीत के लिए पूरी गंभीरता के साथ प्रयास कर रहे हैं। गुजरात में कंाग्रेस अगर किसी कारणवश सत्ता हासिल नहीं कर पाती लेकिन बेहतर प्रदर्शन करती है तो इसे राहुल के नेतृत्व के कारण ही माना जाना चाहिए।
राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो क्या वे विखंडित विपक्ष को एकजुट कर बड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। एक मजबूत विपक्ष ही सत्ता की मनमानियों पर अंकुश लगा सकता है। पर अहम सवाल यही है कि क्या वे प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी के विराट आभामंडल के सामने टिक सकते हैं? क्या वे भाजपा के दिन-ब-दिन मजबूत होते जनाधार में सेंध लगा सकते हैं? क्या वे कांग्रेस से छिटके पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों जैसे उसके परंपरागत समर्थकों को वापस जोड़ सकते हैं?
इन सब सवालों के जवाब तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई शक नहीं राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने और मतदाताओं के सामने अपनी मजबूत छवि पेश करने के लिए गंभीरता से कोशिश कर रहे हैं। और, यह कोशिशें पिछले कुछ समय से दिखाई भी दे रही है। हो सकता है कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं का विश्वास अर्जित करने में कुछ समय लगे पर भविष्य में होने वाले चुनावों में से किसी एक राज्य में भी वे सत्ता हासिल करने में सफल हो जाते हैं तो वह जीत उनकी नेतृत्व क्षमता पर मुहर लगा देगी। आज उन्हें जरूरत है तो सिर्फ एक जीत की जो उनकी नेतृत्व क्षमता को स्थापित कर दे।