दो वर्ष पूर्व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह ने मुझसे पूछा था कि राजस्थान सरकार के क्या हाल हैं? तब मैंने कहा था कि यदि आज ही चुनाव हो जाएं तो भाजपा को ३०-३५ से ज्यादा सीटें मिलना संभव ही नहीं है। उनको मेरी बात कहां गले उतरने वाली थी! मुझ पर नाराज भी नजर आए थे। आज तो उनको मेरी बात की सत्यता अक्षरश: समझ में आ गई होगी। हालांकि इस बीच शाह जब भी राजस्थान प्रवास पर आए, उन्होंने मुक्त कण्ठ से सरकार की प्रशंसा कर सिर पर चढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी। उनको क्या लाभ मिला, वे ही जानें। भाजपा की तो लोकसभा में दो सीटें कम हो गईं।
पं. बंगाल के उपचुनाव भी भाजपा हार गई। अभी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं उत्तरप्रदेश में उपचुनाव होने हैं। लोकसभा में भाजपा का अपना बहुमत किनारे लगता जा रहा है। भाजपा की इस स्थिति से न तो राजस्थान की मुख्यमंत्री और न अमित शाह का कुछ बिगडऩे वाला है। दीर्घकालीन नुकसान भारतीय जनता पार्टी का ही होगा। ये तो अपने-अपने घर चले जाएंगे। इसके लिए पार्टी को ही स्थितियों पर चिंतन करना होगा। वर्ना दूसरे राज्यों में भी ऐसी नौबत आ सकती है। गुजरात में स्वयं प्रधानमंत्री ऐन वक्त पर कमान नहीं संभालते तो नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों ने वहां भी हार की पटकथा लिख ही दी थी।
हाल ही में प्रधानमंत्री के हाथों राजस्थान सरकार ने रिफाइनरी का पुन: शिलान्यास करवाया है। नाम कुछ भी दिया होगा। जनता तो जानती है कि प्रधानमंत्री तक को सच्चाई से कितना दूर रखा जाता है। जो आंकड़े विकास दिखाते हैं, उनमें किसानों की मौत की छाया दिखाई नहीं देगी। राज्य में हत्या, दुष्कर्म कैसे रोजमर्रा की घटनाओं जैसे नजर आएंगे? आम आदमी आज यह सोच बैठा है कि सरकार स्वयं जाने की तैयारी में अपने झोले भर रही है।
भाजपा का अहो भाग्य ही कहा जाएगा कि उसके प्रान्तीय अध्यक्ष
अशोक परनामी भी दोनों हाथों पार्टी की जड़ें खोदने में ही लगे हैं।
कुछ मंत्रीगण तो जनता से पूरी तरह मुंह फेर चुके। स्वास्थ्य, स्थानीय निकाय, परिवहन, सडक़, जल, शिक्षा जैसे सार्वजनिक जीवन से जुड़े विभाग भी जनता का ही दोहन कर रहे हैं। इन पर नियंत्रण रखने वाले, संगठन के मुखिया के नेतृत्व में प्रदेश भर में अतिक्रमण और अराजकता का माहौल बना हुआ है। फिर भी दिल्ली प्रशंसा करते नहीं थकता। कुछ तो राज है!
राजस्थान में पहले भी पांच उपचुनाव हो चुके हैं। भाजपा को दो सीटें ही मिली थीं। यानीकि कुल २२ विधानसभा क्षेत्रों में से बीस हाथ से निकल गए। इस बार तो भाजपा मानो किनारे पर ही बैठी थी। मतदाता ने कुहनी मारी और नीचे गिर पड़ी। निष्कर्ष यही निकला कि सन् २०१८ का विधानसभा चुनाव भी इसी सरकार के नेतृत्व में लड़ा गया तो राजस्थान में भाजपा बचेगी क्या? हालांकि आज ही एक भाजपा प्रवक्ता टीवी पर बोल रहे थे कि दो-तीन चुनाव हारने से भाजपा पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम तो दो से उठकर भी बहुमत तक पहुंचना जानते हैं। बेचारे, प्रवक्ता! यह नहीं समझ पाए कि, कब
प्यार नफरत में बदल जाता है।