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क्षेत्रीय संतुलन का ठोस कदम

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अमरीका के
समझौते से उम्मीद जगी है कि ईरान पर लगाई गईं पाबंदियों

Jul 16, 2015 / 11:28 pm

मुकेश शर्मा

Nuclear Program

Nuclear Program

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अमरीका के समझौते से उम्मीद जगी है कि ईरान पर लगाई गईं पाबंदियों को हटा लिया जाएगा। अब ईरान को समस्याग्रस्त देश नहीं माना जाएगा। उस पर लगी पाबंदियां हटने से भारत और उसके बीच क्या फिर से व्यापारिक रिश्ते मजबूत होंगे? ईरान के साथ व्यापार में भारत को क्या लाभ मिलेगा? क्या पाकिस्तान होते हुए गैस पाइपलाइन बिछाए जाने की संभावना है? या फिर पाकिस्तान में चीन द्वारा आर्थिक कॉरिडोर परियोजना के संदर्भ में भारत को गैसपाइप लाइन के वैकल्पिक उपाय ढूंढने होंगे? रणनीतिक रूप से समुद्री मार्ग तलाशना भारत की जरूरत बन गया है? पढिए ऎसे ही सवालों पर जानकारों की राय स्पॉटलाइट में…

300 किलो से ज्यादा यूरेनियम की इजाजत नहीं


ईरान को अपने परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज में से दो तिहाई घटाना होगा और वर्तमान संवर्धित यूरेनियम का 3.67 फीसदी और 300 किलो से ज्यादा नहीं रख सकेगा। यह नियम 15 साल तक लागू रहेंगे। ईरान अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को 20 वर्षो से तक परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज के भंड़ारण, यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी एवं निरीक्षण कर सकेगें। ईरान अपने तेल को अन्य देशों को बेच सके गा।


दो साल से चल रहे थे प्रयास


दोवर्षो से अमरीका , ब्रिटेन, फ्रांस ,चीन, जर्मनी और रूस के राजनयिक ईरान के राजनयिकों से इस मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे । पिछले चुनाव में ईरान में सुधारवादी रूहानी विजय होने के बाद बातचीत शुरू हुई। तीन महीने पहले वर्तमान समझोते का एक प्रारूप तैयार किया गया और इसी सप्ताह पूर्ण हुआ।

सामरिक महत्व जरूरी


भारत के ईरान के साथ लंबे समय से अच्छे राजनीतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं और ये तेजी के साथ विकसित भी हो रहे थे। लेकिन, इस दोस्ती में कुछ कमजोरी आई 2002-03 के दौर में। यह भारत की मजबूरी भी थी और रणनीतिक तौर पर भी जरूरी था। भारत को अमरीका का समर्थन चाहिए था, परमाणु शक्ति के तौर पर उभरने में।


इसके साथ ही भारत यह भी चाहता था कि जिस तरह से उसके बाद पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाया और फिर उत्तर कोरिया ने, तो ईरान भी ऎसा नहीं करने पाए। यदि ईरान भी ऎसा करता तो भारत के परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर होने वाले प्रयासों पर पानी फिर जाता। ऎसे मे दो मौकों पर उसे ईरान के खिलाफ भी मत देना पड़ा।


ईरान समस्याग्रस्त नहीं

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा विदाई की बेला में हैं और जाते-जाते वे अपने कार्यकाल की उपलब्धि के तौर पर ईरान के साथ बेहतर संबंध का तोहफा देकर जाना चाहते हैं।


ऎसा इसलिए है क्योंकि ईरान पर लगाई गई पाबंदियों का ईरान के सामाजिक और आर्थिक हालात पर विपरीत असर तो पड़ ही रहा था। इसके परोक्ष प्रभाव के तौर पर उसका जुड़ाव आतंकी समूहों से भी होने का खतरा बनने लगा था। इसे रोकने के उद्देश्य से ईरान की स्थिति को सुधारना जरूरी हो गया था।


ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने इसके लिए परोक्ष रूप से प्रयास किए और बाद में अमरीका की ओर भी ये प्रयास हुए। ऎसे में पांच परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के साथ जर्मनी ने मिलकर ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम समझौते की जमीन तैयार की। अब इस संधि के बाद ईरान को समस्याग्रस देश नहीं कहा जाएगा। हालांकि उसके परमाणु कार्यक्रम पर कुछ अंकुश जरूर रहेगा।

भारत को मिला मौका


ईरान के साथ रिश्तों में खास बात यह रही है कि जब ईरान पर आर्थिक पाबंदियां लगीं तो भारत ने ईरान के साथ अपना व्यापार समाप्त नहीं किया बल्कि कुछ कम अवश्य किया। भारत अपनी जरूरतों का बहुत अधिक कच्चा तेल ईरान से आयात करता रहा है।


इसके अलावा पाकिस्तान होते हुए गैस पाइपलाइन परियोजना शुरू करने की भी बात हुई थी लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि भारत को यदि सात या आठ फीसदी की दर से विकसित होना है तो उसके लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होगी। भारत के लिए ईरान ही कच्चे तेल का सबसे अच्छा और बेहतर तेल आपूर्तिकर्ता देश है।


चूंकि भारत के रिश्ते ईरान से पूर्व में अन्य देशों के मुकाबले बेहतर रहे हैं तो बदली हुई परिस्थितियों में उम्मीद है कि पुराने रिश्ते तेजी के साथ फिर मजबूत होंगे। चीन तेजी के साथ भारत को घेरने की कोशिश में है। पाकिस्तान में वह ग्वादर से काश्गर तक आर्थिक गलियारा भी बना रहा है।


पाकिस्तान के लिहाज से इस निवेश को व्यापारिक दृष्टि से लाभकारी कहा जा रहा है लेकिन भारत की परेशानी यह है चीन पाकिस्तान के ग्वादर में रहकर भारत पर निगरानी की कोशिश जरूर करेगा। चीन और पाकिस्तान इस मामले में कितने ही आश्वासन दें लेकिन हम दोनों पर ही विश्वास कर पाने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं हैं।


चाबहार का फायदा

ऎसे में भारत की जरूरत यह है कि वह ईरान के चाबाहर बंदरगाह को तेजी से विकसित करे। भारत इस बंदरगाह विकसित करने के लिए खुलकर काम नहीं कर पा रहा था। अब भारत के लिए आसान हो गया है कि वह इस बंदरगाह को तेजी से विकसित करे। यह बंदरगाह न केवल ईरान के साथ व्यापारिक दृष्टि से लाभकारी है बल्कि खाड़ी के अन्य देशों के साथ व्यापारिक संबंध के लिहाज से भी लाभकारी साबित होगा।


इस काम में चीन को रोकने के लिहाज से अमरीका को भारत का समर्थन ही मिलेगा। पूर्व में यह व्यापारिक लिहाज से लाभकारी था लेकिन पाकिस्तान में चीन की बढ़ती उपस्थिति के मद्देनजर सामरिक संतुलन के लिए चाबाहर बंदरगाह पर भारत की पकड़ होना जरूरी हो गया है। प्रो. स्वर्ण सिंह जेएनयू

अब मिलेगा सस्ता तेल

तेहरान और वॉशिंगटन के बीच हुए समझौते से विश्व अर्थव्यवस्था को कई फायदे होंगे। दरअसल, विश्व अर्थव्यवस्था तेल और गैस के इर्द-गिर्द ही घूमती है। वैकल्पिक ऊर्जा का हिस्सा नाममात्र है।

चूंकि ईरान वैश्विक परिदृश्य में प्रतिबंधों की वजह से अलग-थलग पड़ा हुआ था इसलिए इस समझौते के बाद उसकी अतंरराष्ट्रीय समुदाय में वापसी होगी। इसका पहला परिणाम यह रहेगा कि मध्य पूर्व में स्थायीत्व आएगा। अभी तक मध्यपूर्व की घटनाओं में सउदी अरब का प्रभाव सबसे ज्यादा था।


ईरान का प्रभाव नगण्य हो चला था। अब इसके बाद मध्य पूर्व में दो ताकतें ऊभरेंगी। सऊदी अरब और ईरान। इन दोनों को ही पश्चिमी ताकतों का समर्थन मिलेगा। ईरान और सउदी अरब दोनों के उभरने से इन दोनों में प्रतिस्पर्धा होगी और मध्यपूर्व में राजनीतिक स्थिरता आएगी।


अब शुरू होगा स्थिरता का दौर

दुनिया के दो तिहाई तेल भंडार मध्य पूर्व में हैं। इस क्षेत्र में स्थिरता आने से तेल की कीमतें स्थिर होंगी। दुनिया की अर्थव्यवस्था को इस वक्त तेल की उतार-चढ़ाव से निजात चाहिए। ईरान के उभरने से तेल के दामों में उतार-चढ़ाव बंद होंगे। अस्थिरता का दौर खत्म होगा।


ईरान का तेल अतंरराष्ट्रीय बाजार में कई बरसों से नहीं आ रहा था। गैस पर भी बिलकुल ही रोक लग गई थी। पर इस समझौते के बाद ईरान का करीब 40 लाख बैरल तेल विश्व के बाजार में आएगा। आने वाले कुछ बरसों में इतनी मात्रा में तेल की आपूर्ति बाजार में होगी तो तेल की कीमतें निश्चित तौर पर नीचे जाएंगी। कीमतें स्थिर होंगी।


इसी प्रकार गैस के बड़े भंडार भी ईरान में हैं। भारत जैसे विकासशील और तेल-गैस के बड़े आयातक देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ा फायदा होगा। दुनिया में गैस के बड़े भंडार भी ईरान में है। वह भी दुनिया के बाजारों में जाएगी।


सुधरेगी ईरान की अर्थव्यवस्था

इसके अलावा ओपेक बहुत बड़ा कार्टेल (उत्पादक-संघ) है। ईरान भी ओपेक देशों में शामिल है। पर उस पर प्रतिंबध लगने के बाद उसकी इस मंच पर सुनी नहीं जाती थी। सऊदी अरब की आवाज ही सुनी जा रही थी। अब ओपेक में ईरान की आवाज बुलंद होगी। पर हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि ईरान की समस्या हल होने से तेल की कीमतें 30 या 40 डॉलर प्रति बैरल हो जाएंगी। अभी ईरान की अर्थव्यवस्था को आधुनिकीकरण के लिए पैसा चाहिए। तेल के बुनियादी ढांचे के लिए धन की जरूरत है।

इसलिए अब ईरान अन्य ओपेक देश मसलन, रूस, मैक्सिको, वेनेजुएला आदि के साथ मिलकर सुनिश्चित करेगा कि तेल की कीमतें स्थिर ज्यादा नीचे न जाएं। ताकि वह धन जुटा सके।


पर अगले दो साल में तेल की कीमतें स्थिर रहेंगी। ईरान जब विश्व अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा तो बदलाव आने शुरू होंगे। अमरीका भी चाहेगा कि ईरान मध्यपूर्व में हो रही परेशानियों के खिलाफ “काउंटर बैलेंस” का काम करने में सक्षम हो।


यह फायदा होगा हमें

भारत और ईरानी सभ्यता के आपसी सम्बंध पुराने हैं। पर भारत ने ईरान पर लगे प्रतिबंधों का खुलकर विरोध नहीं किया। हमने एक तटस्थ भूमिका निभाई थी। कई दफा भारत ने अमरीका का भी साथ दिया। हालांकि ईरान इस बात को तवज्जो नहीं देना चाहेगा क्योंकि कूटनीति में ऎसे कदम उठाने पड़ते हैं। ईरान को भलीभांति मालूम है कि एशिया में भारत का दबदबा बन रहा है। ईरान को भारत की हमेशा से जरूरत रही है।


भारत का बाजार उसे चाहिए। आने वाले दिनों में भारत और ईरान के ऊर्जा सम्बंध बढ़ेंगे। भारत के लिए ईरान इसलिए भी अहम है कि हमें तेल अच्छे दामों में मिलेगा। यानी दोनों देशों के बीच सम्बंधों की गर्माहट बढ़ाने के लिए तेल की अहम भूमिका रहने वाली है।


ईरान भारत के लिए सेंट्रल एशिया का द्वार रहा है। साथ ही वह अफगानिस्तान में भारत को मजबूत करने में कारगर साबित होगा। आईटी, बैंक, ढांचागत निर्माण और उपकरण निर्माण के लिए भारतीय कम्पनियां ईरान के निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। नरेंद्र तनेजा ऊर्जा एवं आर्थिक विशेषज्ञ

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