इन परिस्थितियों में भी और कई बार अपमानित होने पर भी विद्वान और नीतिज्ञ विदुर ही ऐसे अकेले सभासद थे जो कभी सच कहने से पीछे नहीं हटते थे। यह प्रसंग भारतीय सभ्यता में धर्म के अनुशासन की स्मृति बनाए रखने के उद्यम को रेखांकित करता है।
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Patrika Opinion: करें राजनीति की दिशा बदलने का संकल्प आज भारत की संसद में ‘लोक सभा’ और ‘राज्य सभा’ दो सभाएं हैं। ये देश की सर्वोच्च संस्थाएं हैं जिन पर देश के लिए रीति-नीति तजबीज करना और लागू करने की व्यवस्था निश्चित करने का दारोमदार है। इन सभाओं के दृश्य और होने वाले विमर्श चिंताजनक होते जा रहे हैं। लोकसभा और राज्यसभा की पिछली कुछ बैठकों के दृश्य खास तौर पर बड़े विचलित करने वाले थे।
विपक्ष का धर्म सिर्फ सभा की कार्रवाई रोकना ही रह गया, दूसरी ओर सत्ता पक्ष किसी भी तरह अपनी राह चलने को उद्यत बना रहा। गणतंत्र की रक्षा के लिए शपथ लिए हुए जन-प्रतिनिधि संसद पहुंच कर उस गण को बिसराने लगते हैं जिसके हित की रक्षा करना ही उनका एकमात्र कत्र्तव्य होता है और जिसके लिए उनको हर तरह की सुविधा प्रदान की गई है।
यह सब साधारण जन और गणतंत्र के उन प्रेमियों के लिए पीड़ादायी होता है जो अपने मन में माननीय जन-प्रतिनिधियों से देश की उन्नति के लिए कुछ करने की आशा संजोए हुए हैं। राज सभा की चर्चाओं में ‘धर्म’, ‘सत्य’ और ‘छल-कपट’ सब के सब एक-दूसरे के बड़े करीब खड़े दिखते हैं और यह अनदेखा करना कठिन हो जाता है कि सत्ता सुख के निहित स्वार्थ की रक्षा करने के लिए यह सब उन संसदीय परम्पराओं के विरुद्ध होता जा रहा है जिनकी आधार-शिला पर देश का लोकतंत्र टिका हुआ है।
इस संदर्भ में भारत के लिए संविधान निर्माण के दायित्व का निर्वाह करने वाली संविधान सभा में होने वाली बहसें आंखें खोलने वाली हैं। भारत के संविधान के निर्माण के दौरान क्या हुआ था, इस पर गौर करें तो संवाद वाली सभ्यता का मूल्य समझ में आता है। कॉन्स्टीचुएन्ट असेम्बली के सामने बन रहे संविधान की मसौदा समिति ने 4 नवंबर 1948 को ‘इंडिया शैल बी ए यूनियन ऑफ स्टेट्स’ रखने का प्रस्ताव दिया।
उसके बाद चार-पांच बैठकों में देश के नाम पर गहन चर्चा हुई जिसमें अनंतशयनम अयंगर, लोकनाथ मिश्र, शिब्बन लाल सक्सेना, गोविन्द बल्लभ पंत (युक्त प्रांत), एचवी कामथ, आरके सिधावा, मौलाना हसरत नोहानी, सेठ गोविन्द दास, बीएम गुप्ता, राम सहाय, कलापति त्रिपाठी आदि ने बहस में भाग लिया और भारत, भारत वर्ष, आर्यावर्त आदि विकल्पों पर तथ्यों और तर्कों के साथ विचार किया। अंत में 18 सितंबर 1949 को डॉ. आम्बेडकर ने ‘इंडिया, दैट इज, भारत’ का प्रस्ताव किया जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया और जो संविधान में प्रयुक्त है।
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Republic Day 2022: ‘अमृत महोत्सव’ के आलोक में सशक्त बने भारतीय गणतंत्रसभ्य लोगों के विचार-विमर्श को देखने के लिए संविधान सभा के दस्तावेज बड़े शिक्षाप्रद हैं। आज सत्ता तक पहुंचने की यात्रा में धनबल, जातिबल, क्षेत्रबल और बाहुबल के समीकरण के आगे पात्रता के सवाल व्यर्थ हो रहे हैं। इन सबको देख सात दशक पुराने गणतंत्र का स्वास्थ्य ठीक रहे इसके लिए सभ्यता का पुनराविष्कार जरूरी है।