प्रश्न यह भी है कि क्या उत्तरकोरोना समय में खेतों, सड़कों,रेल पटरियों, खदानों, वस्त्र निर्माण आदि में मशीनों की बजाए मानवीय श्रम को महत्व मिल सकेगा? शहरों, कस्बों में बंद पड़े कारखानों और कपड़ा मिलों में पिछली सदी की तरह चौबीसों घंटे उत्पादन प्रक्रिया शुरू होगी और क्षेत्र के युवा बेरोजगारों के हुनर को स्थानीय स्तर पर ही मौक़ा मिल सकेगा? जिससे अन्य प्रदेशों में पलायन करने की विवशता उनके समक्ष उपस्थित न हो सके। कारखानों के सायरन की आवाज से आत्मनिर्भरता का उद्घोष हो सकेगा।
इन प्रश्नों के उत्तर निश्चित ही अभी आने वाले समय के गर्भ में हैं। अभी कुछ भी कहा जाना थोड़ा मुश्किल भी है। सबसे पहली चिंता और चुनौती तो इस वैश्विक कोरोना प्रकोप से देश प्रदेश के नागरिकों को स्वस्थ और सुरक्षित रखते हुए जन जीवन को पुनः पटरी पर लाने की ही होगी। फिर भी गाँवों की ओर लौटे हमारे इन भूमिपुत्र भाइयों के कल्याण और अर्थव्यवस्था में पूर्व की तरह उनके योगदान को सुनिश्चित करने के लिए विचार करना तो अभी से शुरू कर दिया जाना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों में भी कृषि भूमि स्वामियों की सबसे विकट समस्या जो आमतौर से उनसे सुनने को मिलती रही है, वह खेती करने में युवा श्रमिकों की कमी होना होती है। भरपूर मजदूरी देने के उपरांत खेतों में काम करने वाले युवा मजदूर उपलब्ध नहीं होते हैं। ग्रामीण युवकों का कृषि इतर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन इसके पीछे बड़ा कारण माना जा सकता है. सरकारी नीतियों में युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करने से वे स्वरोजगार योजनाओं के तहत बैंकों को ऋण स्वीकृत करने के अनाप शनाप लक्ष्य आबंटित की वजह से पात्र अपात्र हितग्राहियों के चयन में अक्सर गुणवत्ता प्राथमिकता में नहीं रह पाती। परिणामतः छोटे से गांव में अनेक युवक बैंकों से सरकारी ऋण योजनाओं का लाभ लेकर असफल व्यवसाय का भार ढोते हुए ऋण माफी या किसी समझौता योजना के इंतजार में मजबूर और निष्क्रिय से हो जाते हैं। अब वक्त है नए सिरे से ग्रामीण विकास की नीतियां तय करने का।उम्मीद भी की जानी चाहिए कि कोरोना के साथ व कोरोना के बाद अब ग्रामीण युवा फिर से खेतों की और लौटेगा।