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सहेजें शब्द ब्रह्म की संस्कृति कोई भी शब्द कठिन नहीं

शब्द की संस्कृति उसे बरतने, नए शब्द गढऩे में ही बढ़त करेगी। और हां, शब्द बचेंगे तभी हम, हमारा मूल बचा रहेगा। विचारें, आखिर ऐसे ही तो शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।

Jul 03, 2022 / 11:38 am

Patrika Desk

सहेजें शब्द ब्रह्म की संस्कृति कोई भी शब्द कठिन नहीं

सहेजें शब्द ब्रह्म की संस्कृति कोई भी शब्द कठिन नहीं

राजेश कुमार व्यास
कला समीक्षक

शब्दों की संस्कृति के लिए यह संकट का दौर है। इस विकट समय में बाजार पोषित मूल्य कुछेक शब्दों में ही जीवन चलाने को प्रेरित कर रहे हंै। संकट हिन्दी शब्दों पर ही नहीं है। दूसरी भाषाओं के शब्दों को बचाने का भी समय है। इमोजी के दौर में शब्द हाशिए पर हैं। हमारी हर हरकत पर बाजार की नजर जो है। इंटरनेट से जुड़े किसी भी माध्यम पर आपने कुछ पसंद किया, अपने विचार रखे नहीं कि बाजार अनुभूति कराएगा कि आपके मन को हमने बांच लिया है। और फिर जो कुछ स्क्रीन पर दिखेगा, उस पर ही बटन दब जाएगा। फेसबुक को ही लें। पहले इमोजी तक ही विकल्प थे, पर अब तो पोस्ट के आधार पर हिन्दी और अंग्रेजी में पहले से गढ़े ‘लाजवाबÓ, ‘बहुत सुंदरÓ, ‘बधाई’, ‘सुपरÓ और भी बहुत सारे शब्द जैसे नूंत देते दिखने लगे हैं। पर सोचिए, इस शब्द एकरसता से कितना कुछ हमारा मन का छीना जा रहा है।
शब्द प्रयोग में ही सदा बढ़त करते हैं। हिन्दी में अधिकतर शब्द संस्कृत से आए हैं। पर, लेखक बहुत से स्तरों पर स्वयं भी बहुतेरी बार नए—नए शब्दों से भाषा को समृद्ध और संपन्न करते रहे है। भाषा ‘सिन्टेक्सÓ से ही आगे बढ़ती है। हर शब्द को बरतने की अपनी परम्परा और संस्कार होते हैं। इसलिए शब्द को व्याकरण ही नहीं, ध्वनित अर्थ से भी देखा जाना चाहिए। विशेष शब्दचय, विशेष संदर्भों में अपनी निजता लिए भी होते हैं। मेरे कला लेखन में परम्परा के साथ अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी की लय से प्रेरित बहुत से शब्द अनायास प्रयुक्त हुए हैं, कुछ नए बने भी हंै। गौर किया बहुत से स्तरों पर उनका चलन हो गया। ऐसा ही होता है। देशज शब्दों से, लेखक की अपनी रुचि से गढऩे और बरतने से ही शब्द संपदा बढ़ती है। यह समझने वाली बात है कि शब्द शव है, तब तक जब तक कि उनका प्रयोग नहीं हो। ‘कादम्बिनीÓ अब तो बंद हो चुकी है, परंतु जब यह पत्रिका प्रारम्भ हुई, तो इसका नामकरण महादेवी वर्मा ने किया था। बहुतों को पत्रिका शीर्षक बहुत क्लिष्ट लगा, पर बाद में बहुत कम समय में ‘कादम्बिनीÓ शब्द लोकप्रिय हो गया। सोचिए, क्लिष्ट मानकर यदि शब्दों का प्रयोग ही नहीं हो, तो बहुत सारे शब्द सदा के लिए क्या हमसे जुदा नहीं हो जाएंगे। असल में हम किसी शब्द का प्रयोग ही नहीं करेंगे, तो वह हमें क्लिष्ट ही लगेगा। बहरहाल, कुबेरनाथ राय के निबन्ध संग्रह हैं—’गन्धमादनÓ, ‘रस आखेटकÓ, ‘मरालÓ, ‘पर्णमुकुटÓ, ‘निषाद बांसुरीÓ आदि। पढेंग़े तो शब्द-शब्द मन मथेगा। बकौल कुबेरनाथ राय, उनके निबंध वाक्यों के चन्दन—काष्ठ हैं, जिनसे भावों और विचारों की सुगन्ध प्राप्त करने के लिए पाठक को थोड़ा सा निर्मल—तरल मन देकर इन्हें मेहनत से घिसना पड़ेगा।
यह सच है, चंदन को घिसेंगे तभी तो उससे सुगंध आएगी। हम कहते हैं, ‘बम बम भोलेÓ! कहां से आए ये शब्द? महादेव की अष्टमूर्ति व्योम से। व्योम माने महादेव। वह जो निराकार, शून्य सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। पर व्योम—व्योम महादेव रुचता कहां है। शब्द उच्चारण और बरतने की यही हमारी सौंदर्य दृष्टि है। कला या साहित्य में सपाट कुछ भी रंजक नहीं होता। लिखे में शब्द अर्थगर्भित हों और कलाओं में अर्थ के आग्रह से मुक्त व्यंजना होगी, तभी अंतर्मन आलोकित होगा। शब्द की संस्कृति उसे बरतने, नए शब्द गढऩे में ही बढ़त करेगी। और हां, शब्द बचेंगे तभी हम, हमारा मूल बचा रहेगा। विचारें, आखिर ऐसे ही तो शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।

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