राजनीति के अपराधीकरण को नियंत्रित करने के लिए संविधान के दायरे में प्रशासनिक सुधार पर जोर दिया जाता है। लेकिन 26 नवंबर 1949 को संविधान को पारित करने का प्रस्ताव पेश करते हुए अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने यह स्पष्ट कर दिया था कि संविधान मशीन की तरह निर्जीव वस्तु है। यह उन व्यक्तियों से, जो इसे नियंत्रित और लागू करते हैं, प्राण प्राप्त करता है और भारत को आज ऐसे ईमानदार लोगों के समूह से ज्यादा किसी बात की आवश्यकता नहीं है जिनमें अपने से अधिक देश हित की दृढ़ता हो।
उपरोक्त विचारों के बरक्स हम देश के विधि आयोग की 244वीं रिपोर्ट में यह पाते हैं कि भारत में संसद और राज्य विधानसभा स्तर पर लगभग एक-तिहाई निर्वाचित अभ्यर्थियों के विरुद्ध किसी न किसी प्रकार का आपराधिक कलंक है। प्रत्येक-पांचवें विधायक के विरुद्ध मामले लंबित हैं। इसका अगला हिस्सा यह है कि जो आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार होते हैं वे साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों की तुलना में काफी अधिक संख्या में चुनाव जीतते हैं। जहां स्वच्छ छवि वाले 12 प्रतिशत जीतते हैं तो आपराधिक छवि वालों की संख्या 23 प्रतिशत तक पहुंच जाती है।
प्रशासनिक स्तर पर 1970 के बाद प्रयास की शुरुआत देखी जाती है जब राजनीतिज्ञों के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ रिश्तों के हालात बदल गए और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों ने खुद ही राजनीति की कमान अपने हाथों में लेना शुरू कर दिया। इसके बाद लगातार राजनीति में न केवल ‘अपराधी’ उम्मीदवारों की संख्या का, बल्कि पूरी संवैधानिक प्रक्रिया में आपराधिक प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है।
1993 में वोहरा कमेटी ने अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, मीडिया और अपराधियों के नेटवर्क के स्थापित होने की जानकारी दी और 2002 में संविधान के कार्य का पुनरवलोकन करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने भी इसकी पुष्टि की। 9 अगस्त 2018 को राजनीति के अपराधीकरण के हालात पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि यह संसद की जिम्मेदारी है कि वह राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में आवश्यक कदम उठाए।
दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों की यह स्थिति है कि वे किसी भी तरह चुनाव जीतने के इरादे से उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का ऐलान करती है। चुनाव जीतना राजनीति का जब अंतिम लक्ष्य घोषित किया जाता है तो जाहिर है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव में अपराध और अपराधियों के इस्तेमाल व सहयोग को प्रशासनिक दृष्टि से नहीं सोचती है। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि राजनीतिक पार्टियों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को दूसरी बार टिकट देने का रुझान है। आयोग ने इससे भी आगे की एक चिंताजनक स्थिति का उल्लेख किया, ‘इस बात के भी संकेत हैं कि बेदाग प्रतिनिधि भी बाद में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं।’
1922 में जो संकेत मिले, वे सुधार की दिशा में कदम उठाने के साथ बढ़ते ही गए हैं। संसदीय लोकंतत्र का आधार राजनीतिक पार्टियां ही होती हैं। अध्ययन में पाया गया है – ‘चूंकि आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के पास प्राय: काफी धन होता है इसलिए आपराधिक आरोपों के कलंक के नकारात्मक प्रभाव को संसाधनों के जरिए भारी-भरकम अभियान चलाकर जीता जा सकता है।’
अर्थशास्त्रियों द्वारा कई अध्ययनों से यह सामने आया है कि अकेले 2009 के चुनाव में उम्मीदवारों के प्रचार में लगभग 3 बिलियन डॉलर खर्च किए गए। विधि आयोग की रिपोर्ट बताती है कि भारत के राजनीतिक दलों में दल के भीतर लोकतंत्र का काफी अभाव है और उम्मीदवारों का चयन पार्टी नेतृत्व करता है।
स्थिति यह हो गई है कि हम अपराध को श्रेणियों में बांटकर राजनीति और अपराध के रिश्ते को कमजोर करने की कोशिश करने की तरफ विमर्श का झुकाव बनाने के लिए बाध्य हुए हैं। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी चौथी रिपोर्ट (2008) में अपराधों में गंभीर अपराधों वाली पृष्ठभूमि के राजनीतिज्ञों पर अंकुश लगाने के बारे में सुझाव दिया है। ये गंभीर और जघन्य अपराध हत्या, अपहरण, बलात्कार, डकैती, भारत के विरुद्ध युद्ध छेडऩे, संगठित अपराध और भ्रष्टाचार हैं।
रिपोर्ट में इन अपराधों से संबंधित आरोपों का सामना करने वाले सभी व्यक्तियों को चुनाव से बाहर रखने के लिए जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 8 के संशोधन पर जोर दिया गया। लेकिन इन तमाम प्रशासनिक उपायों के बावजूद राजनीतिक प्रक्रिया में आपराधिक प्रवृत्तियों की जगह बनी हुई है तो इस समस्या का समाधान केवल समाज ही निकाल सकता है। समाज में लोकतंत्र के महत्त्व को लेकर चेतना का जितना विस्तार होगा, राजनीति उसी अनुपात में अपराधों से मुक्त हो सकती है।