सबसे पहले, सौर पंपों तक एक समान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए विशेष लाभार्थियों को लक्षित करने की जरूरत है। अभी लागू ‘पहले आओ-पहले पाओ’ नीति के कारण सरकारी सहायता वाले सौर पंपों का बड़ा हिस्सा संपन्न या अच्छे संपर्कों वाले किसानों के पास पहुंच रहा है। हालांकि, छत्तीसगढ़ इस समस्या का समाधान दिखा रहा है। यहां सरकार ने सौर पंपों के एक बड़े हिस्से को सिंचाई सुविधाओं से वंचित आदिवासी इलाकों के लिए आरक्षित कर दिया। साथ ही छोटे सौर पंपों को बढ़ावा देने की जरूरत है। इससे लघु और सीमांत किसानों तक योजना का लाभ पहुंचाया जा सकता है। छोटे-छोटे खेतों और ऊंचे भूजल स्तर वाले बिहार जैसे राज्यों में एक एचपी या इससे कम क्षमता के सौर पंप बहुत सफल हैं।
सौर पंपों की अतिरिक्त सौर ऊर्जा का वैकल्पिक इस्तेमाल बढ़ाने की भी जरूरत है। 1,100 से ज्यादा सौर पंपों के सीईईडब्ल्यू अध्ययन में पाया गया कि इनसे उत्पादित 70 प्रतिशत सौर ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं हो पाता है, क्योंकि सिंचाई की जरूरत रोजाना या हर मौसम में नहीं होती है। इनका ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो, इसके लिए किसानों के बीच सौर पंपों के साझा इस्तेमाल को बढ़ावा देना चाहिए। अतिरिक्त सौर ऊर्जा से चारा कटाई, चक्की, और खाद्य प्रसंस्करण जैसे वैकल्पिक उपकरण भी चल सकते हैं, जिसे पीएम-कुसुम योजना के तहत बढ़ावा देना चाहिए। सामुदायिक सौर पंपों को प्रोत्साहित करना भी जरूरी है। इस मामले में झारखंड से सीखा जा सकता है, जहां आजीविका मिशन ने सामुदायिक स्वामित्व के आधार पर लगभग 1,000 सौर पंप लगाने में सहायता दी है। सौर पंपों से आय बढ़ाने के लिए किसान को कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त मदद देने की भी जरूरत है।
बागवानी फसलों के लिए पानी की कम मात्रा में, लेकिन ज्यादा समय तक जरूरत पड़ती है। इसलिए किसानों को सौर पंपों के साथ बागवानी फसलों को अपनाने के लिए प्रेरित करना लाभकारी है। राजस्थान में बागवानी विभाग ने सौर पंपों के साथ टपक सिंचाई की सुविधा देते हुए बागवानी फसलों को बढ़ाने में सफलता पाई है, जो अन्य राज्यों के लिए मॉडल हो सकता है।
सौर पंप को सिर्फ सिंचाई के लिए पर्यावरण अनुकूल सतत ऊर्जा का साधन भर नहीं मानना चाहिए। इसके बजाय, हमें भारतीय किसानों के लिए खर्चीली हो रही खेती को किफायती और लाभकारी खेती में बदलने वाले माध्यम के रूप में सौर पंपों की क्षमता का लाभ उठाना चाहिए।