पुरुष-प्रधान सृष्टि में उत्पत्ति का मूल पुरुष है। बीज से पेड़ बनता है, भूमि, खाद, पानी मात्र से नहीं। दोनों की भूमिका एक नहीं हो सकती। पुरुष केन्द्र में रहता है, स्त्री परिधि बनती है। पुरुष को केन्द्र में बनाए रखना है तो वह तालमेल भी बिठाती है। पुरुष महत्त्वाकांक्षी है, विस्तारवादी है और स्त्री संकुचनवाद का प्रतिनिधित्व करती है। माया स्वरूपिणी है। उसकी यह प्रकृति-प्रदत्त भूमिका है। हम देख सकते हैं कि पश्चिम ने इस भूमिका को चुनौती दी और आज हर नारी एक विकट परिस्थिति में खड़ी है। भोग की वस्तु बन गई है। पुरुष भी लम्बे काल तक उसके साथ बंधने को तैयार नहीं है। नई पीढ़ी ने तो शादी की संस्था को भी ठुकरा दिया है। विवाह पूर्व लड़कियों का मां बन जाना आम बात दिखाई देती है। उन समाजों की आज यह बड़ी चिन्ता है। ऐसी लड़कियां अथवा लडक़े शादी के बाद कितना सुख भोग पाते हैं? उनका मन तो पहले ही बिखर चुका है। कई शादियों के बाद भी उनको वह सुख नहीं मिल सकता जो भारतीय पति-पत्नी को मिलता है। एक होकर जीने की लालसा, सुख-दु:ख को बांटकर चलने की इच्छा यहां सदा बनी रहती है। जीवन में एक मिठास होती है। इसके स्थायी रहने की चाह भी बनी रहती है।
भारत में विवाह व्यक्तिगत नहीं होकर एक सामाजिक संस्था है। श्रीमद्भागवत् में कहा है कि विवाह तथा एक सौत्रामणि नाम के विशेष यज्ञ में सुरापान का विधान है। इसका अर्थ बताया गया है कि कामवेग में किसी भी यथेच्छ स्त्री के साथ पाशविक बर्ताव न होने लगे इसलिए एक पत्नी रूप विवाह प्रथा का समाज में प्रवर्तन हुआ है। सौत्रामणि जैसे अति विशिष्ट यज्ञ कोई महासमर्थ मनुष्य जीवन में एक ही बार सम्पादित कर सकता है और उसमें किया हुआ यज्ञ शेष रूप एक दिन का सुरापान किसी आदमी के जीवन को नहीं बिगाड़ सकता। मद्यपान समाज में सामान्य रूप में प्रचलित न हो जाए इसलिए सौत्रामणि यज्ञ में ग्रहण करने की प्रथा बताई गई है। उसका विधान नहीं है।
नवयुगल की सामाजिक भूमिका भी होती है। सन्तान प्राप्ति उसका धर्म है। इसी प्रकार वानप्रस्थ में समाज के लिए कार्य करना भी उसका धर्म है। वह अपनी सन्तान को भी समाज व्यवस्था से जोड़ता है। उसके मन में यह डर कभी नहीं रहता कि उसका साथी उसे छोड़ देगा/देगी। किन्तु, पश्चिम में लोग इसी डर से साथ चलते हैं तथा दिखावे करते रहते हैं।
हमारे यहां मन की बात मुंह से नहीं कही जाती, उसे व्यवहार से समझा जाता है। तुलसीदास कहते हैं—‘पीय हिय की सिय जानन हारी।’ पश्चिम में तो बेटे को भी I Love You कहना पड़ता है, तभी बेटा मानता है कि मां उसे सचमुच प्यार करती है। अभिव्यक्ति की शब्द रूप में इतनी स्पष्टता मनोभावों की कमजोरी का लक्षण है। विवाह एक शक्ति संस्था है। जीवन की पूर्णता है। योषा-वृषा आधारित संस्था है। सृष्टि विस्तार की संस्था है। वह कमजोर तो हो ही नहीं सकती।
विवाह बन्धन होकर भी बन्धन मुक्त होने का मार्ग है। एक-दूसरे को समझने की जरूरत नहीं, किसी में दोष ढूंढने की जरूरत नहीं। ‘‘गर एक शर्त पर लेना है तो हाजिर है दिल ले लो, रंजिश न हो, फरेब न हो, इम्तिहां न हो।’’ दो का एक हो जाने की संस्था है। एक और एक ग्यारह होने की यहां जरूरत नहीं। एक-दूसरे में समा जाने का भाव चाहिए। आमतौर पर देखा गया है कि किसी न किसी का अहंकार दूसरे पर छाया रहता है, जिससे मिठास घटती है। मन का रिश्ता है, मनों का एक हो जाना ही इसकी पूर्णता है। स्वयं के बजाय जीवन-साथी की चिन्ता करना इसका सरल उपाय है। इसी से सहिष्णुता बढ़ती है, माधुर्य, स्नेह आदि आनन्ददायक होते हैं। उम्र के साथ जैसे-जैसे शरीर का आकर्षण घटता है, एक अनदेखी शक्ति की ओर विश्वासपूर्वक मुड़ जाना जीवन में नई शक्ति का संचार करता है। किसी अन्य की तलाश तो कमजोरी का लक्षण है, झूठा अहंकार है। मानव देह दुर्लभ है, इसका उपयोग भी विवेक से होना चाहिए, पशु के समान नहीं। शरीर साधन है, यह पवित्र होगा तभी साध्य तक पहुंचा जा सकता है। मन भी अमर है। जब दोनों पक्षों के मन एक होंगे, तभी तो अगले जन्म तक वे साथ चल सकते हैं।
और अन्त में, ओशो के शब्दों में- ‘पानी जैसी स्त्री पाकर भी जो अन्तर्मुखी न हो और अन्य स्त्रियों की ओर भागे, उसका कल्याण तो अनेक जन्मों में भी नहीं हो सकता। सात जन्म साथ रहकर भी …।’