कितने ‘गर्व’ की बात है कि राजस्थान पथ परिवहन निगम अपना खर्च चलाने के लिए 400 करोड़ रुपए का कर्ज लेने जा रहा है। इस उपलब्धि के लिए परिवहन मंत्री को तमगा दिया जाना चाहिए। शायद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राह पर चलते हुए राजस्थान में वे भी रोडवेज को समाप्त करने का ‘श्रेय’ हासिल कर लें।
राजस्थान में रोडवेज ही नहीं, पूरा परिवहन विभाग ही गर्त में जा रहा है। राजस्थान रोडवेज तो 15 साल से घाटे में है। सरकार के अनुदान के भरोसे किसी तरह गाड़ी चल रही है। ऋण का भार बढ़ता जा रहा है। इसे चुकाएगा कौन, इसकी चिन्ता किसी को नहीं है। आखिर में पैसा आम नागरिकों से ही वसूला जाएगा। रोडवेज में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। हर माह औसतन 100 परिचालक बिना टिकट यात्री ले जाते पकड़े जाते हैं। परिचालक और डिपो मैनेजर की मिलीभगत के मामले भी पकड़े जा चुके हैं। पर ये अपने आकाओं की कृपा से फिर उसी सीट पर आ बैठते हैं। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार की कमाई ऊपर तक जाती है। भ्रष्टाचार के मामले में एपीओ हुए अफसरों को वापस उसी सीट पर लगा दिया जाता है। बसों की खरीद में और बड़े घपले होते हैं।
हाल ही में चौंकाने वाली यह बात सामने आई कि राजस्थान रोडवेज की बसों से मिलती-जुलती अवैध बसें रोडवेज के रूटों पर चल रही हैं। रोडवेज की बसें उन रूटों से हटा ली गईं। क्या इतना बड़ा भ्रष्टाचार बिना ऊपरी संरक्षण के हो सकता है? परिवहन विभाग की हालत तो और भी ज्यादा खराब है। इंस्पेक्टर व बाबू एक सीट पर ज्यादा नहीं जम पाए, इसके लिए रोस्टर प्रणाली बनाई गई। यह दिखावा बनकर रह गई। निजी बसें और अन्य वाहन धड़ल्ले से बिना परमिट के चल रहे हैं। मंत्री स्तर पर यह निर्णय लिए जा रहे हैं कि कौन किस सीट पर बैठेगा। कमाई वाली सीटों की बोली भी ऊंची लगती है। पिछले साल भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने मासिक बंधी के आरोप में आठ दलालों और छह अफसरों को पकड़ा था। अब उन्हें भी वापस पोस्टिंग देने की कोशिश हो रही है। ऑटोमैटिक ड्राइविंग ट्रैक का काम निजी कंपनी को दे दिया गया और इसके लिए लाइसेंस फीस बढ़ा दी गई। फिर परिवहन विभाग की फौज किस काम के लिए है?
परिवहन विभाग में बार-बार रोडवेज के निजीकरण की चर्चा हो रही है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की तरह राजस्थान में भी बहुत से राजनेताओं की बसें चल रही हैं। ऐसे ही नेताओं ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में रोडवेज का बंटाधार करवाया है। एक-एक नेता की दो-दो सौ बसें चल रही हैं। जिन मार्गों पर यात्री भार कम होता है, वहां ये निजी बसें चलती ही नहीं। दूरस्थ गांव-कस्बों के हजारों यात्री परेशान हैं। दोनों प्रदेशों में सरकारों को ऐसे यात्रियों की तकलीफों से कोई मतलब नहीं है। कहने को तो लोकतंत्र में ‘लोक’ की तकलीफें दूर करने के दावे किए जाते हैं, पर बस माफियाओं से गठजोड़ जनता की पीड़ा पर भारी पड़ता है। चाहे भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस, परिवहन विभाग को दोनों पार्टियों ने अपने-अपने शासन में जम कर दुहा है। ‘लोक कल्याण’ के मुखौटे के पीछे जनता की लूट-खसोट राजनीतिक पार्टियों के चरित्र में शामिल हो चुकी है।