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Upper Caste Reservation: तोहफा या शिगूफा

बेहतर होगा कि सरकारें और दल कूलड़ी में गुड़ फोडऩे के बजाय मिल-बैठकर तय करें कि देश के जरूरतमंद तबके तक आरक्षण का लाभ कैसे पहुंचाया जाए।

Jan 09, 2019 / 04:39 pm

dilip chaturvedi

upper castes reservation

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लगता है कि हम भारतवासी और हमसे ज्यादा हमारी सरकारें और हमारे तमाम राजनीतिक दल चाहते ही नहीं हैं कि हम विकसित और प्रगतिशील कहलाएं। सब मिलकर बातें चाहे चांद पर बस्तियां बसाने की करें, लेकिन सब मिलकर इस देश की 175 करोड़ आबादी को धर्म-जाति और आरक्षण के दायरे में ही रखना चाहते हैं। तभी तो चुनाव के ऐन पहले हमारी सरकार सामान्य गरीबों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण का फैसला करती है। केंद्रीय केबिनेट के इस निर्णय का राजद जैसे इक्का-दुक्का दलों को छोड़कर किसी ने विरोध नहीं किया है। कर भी कैसे सकते हैं? वोटों का सवाल जो ठहरा। लोकसभा चुनाव से तीन महीने पहले ऐसे निर्णय का विरोध करके कौन दल राजनीतिक आत्महत्या करना चाहेगा? केन्द्र सरकार ने मंगलवार को इस आशय का बिल लोकसभा में रख भी दिया। वह पारित भी हो जाएगा। लेकिन आज देश में जो माहौल है, उसमें यह सवाल सबसे महत्त्वपूर्ण है कि क्या यह निर्णय लागू हो पाएगा? क्या संविधान इसकी इजाजत देगा? क्या यह निर्णय अगड़ों-पिछड़ों की खाई को कम कर पाएगा? सवाल यह भी है कि क्या यह निर्णय जिसे ऐतिहासिक कहा जा रहा है, सरकार ने व्यापक समाज हित में लिया है या कि इसके पीछे भी राजनीतिक प्रयोजन हैं?

सारे सवालों को संक्षेप में देखें तो बहुत साफ लगता है कि इस निर्णय के पीछे कोई व्यापक सामाजिक या राष्ट्रीय हित नहीं है। सीधे-सीधे चुनावी लाभ लक्ष्य है। वैसा ही, जैसा पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार अथवा समय-समय पर देश के अन्य राज्यों की सरकारों ने सोचा। पुराने उदाहरण भारतीय वर्ण व्यवस्था की अगड़ी-पिछड़ी जातियों तक सीमित थे। नरेन्द्र मोदी सरकार ने उसका दायरा हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी धर्मों तक बढ़ा दिया है। यानी पहले 10 अथवा 14 प्रतिशत आरक्षण में केवल एक धर्म के अगड़े आते, अब इस 10 प्रतिशत में सभी धर्मों के अगड़े आएंगे। इस आलोचना में भी दम नजर आता है कि आम चुनाव से ठीक पहले इसे लागू करने के लिए लाया गया है अथवा यह दिखाने के लिए कि हम ऐसा करना चाहते हैं। कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं होने की हमारी संवैधानिक पाबंदी के चलते यह निर्णय लागू हो पाएगा अथवा नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसने देश की जनता को उद्वेलित जरूर कर दिया है। क्या आम चुनाव से ठीक पहले हमारे सभी राजनीतिक दल इस बात के लिए तैयार हैं कि चुनाव में मौजूदा आरक्षण व्यवस्था पर स्पष्ट नीति और नीयत के साथ उतरें?

दलितों-पिछड़ों और वंचितों को आरक्षण मिलना चाहिए, इसमें किसी भारतवासी को शायद ही कोई ऐतराज हो। बड़ा सवाल यह है कि क्या जाति के नाम पर वह उन परिवारों को भी मिलना चाहिए, जिन्होंने अपनी जाति में ही अगड़े-पिछड़ों का माहौल बना दिया। आज भी देश के विभिन्न राज्यों में भील, आदिवासी और दलितों के करोड़ों परिवार मिलेंगे, जिन्हें 70 साल बाद भी इसका फायदा तो छोडि़ए, नाम भी नसीब नहीं हुआ। आरक्षण में 8 लाख रुपए सालाना की आय, पांच एकड़ जमीन या 1000 वर्ग फुट के मकान की पाबंदियां, वाकई में किसी भी जरूरतमंद को लाभ पहुंचा पाएंगी, इस में शक है। और यदि 8 लाख रुपए सालाना आय वालों को सरकार गरीब मान रही है, तब फिर ढाई-तीन लाख रुपए वार्षिक आय वाले को आयकर देने लायक कैसे मान रही है? क्या वह गरीबी की सीमा में नहीं आता? फिर वह सीमा भी 8 लाख रुपए क्यों नहीं हो जानी चाहिए? बेहतर होगा कि हमारी सरकारें और राजनीतिक दल कूलड़ी में गुड़ फोडऩे के बजाय आपस में मिल-बैठकर तय करें कि वाकई में देश के जरूरतमंद तबके तक आरक्षण का लाभ कैसे पहुंचाया जाए। जाति, धर्म, आय, जातियों के मतदाताओं की संख्या, उनका बाहुबल, इस विचार में, यह सब गौण होना चाहिए। मिल-बैठ चर्चा करें तो संवैधानिक पाबंदियों का भी कोई समाधान अवश्य निकल आएगा। अन्यथा यह लोकसभा और राज्यसभा से पारित भी हो गया तो देश की जनता को उसका कोई लाभ नहीं मिलेगा, बल्कि इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक वैमनस्य और बढ़ता हुआ नजर आए।

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