सारे सवालों को संक्षेप में देखें तो बहुत साफ लगता है कि इस निर्णय के पीछे कोई व्यापक सामाजिक या राष्ट्रीय हित नहीं है। सीधे-सीधे चुनावी लाभ लक्ष्य है। वैसा ही, जैसा पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार अथवा समय-समय पर देश के अन्य राज्यों की सरकारों ने सोचा। पुराने उदाहरण भारतीय वर्ण व्यवस्था की अगड़ी-पिछड़ी जातियों तक सीमित थे। नरेन्द्र मोदी सरकार ने उसका दायरा हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी धर्मों तक बढ़ा दिया है। यानी पहले 10 अथवा 14 प्रतिशत आरक्षण में केवल एक धर्म के अगड़े आते, अब इस 10 प्रतिशत में सभी धर्मों के अगड़े आएंगे। इस आलोचना में भी दम नजर आता है कि आम चुनाव से ठीक पहले इसे लागू करने के लिए लाया गया है अथवा यह दिखाने के लिए कि हम ऐसा करना चाहते हैं। कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं होने की हमारी संवैधानिक पाबंदी के चलते यह निर्णय लागू हो पाएगा अथवा नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसने देश की जनता को उद्वेलित जरूर कर दिया है। क्या आम चुनाव से ठीक पहले हमारे सभी राजनीतिक दल इस बात के लिए तैयार हैं कि चुनाव में मौजूदा आरक्षण व्यवस्था पर स्पष्ट नीति और नीयत के साथ उतरें?
दलितों-पिछड़ों और वंचितों को आरक्षण मिलना चाहिए, इसमें किसी भारतवासी को शायद ही कोई ऐतराज हो। बड़ा सवाल यह है कि क्या जाति के नाम पर वह उन परिवारों को भी मिलना चाहिए, जिन्होंने अपनी जाति में ही अगड़े-पिछड़ों का माहौल बना दिया। आज भी देश के विभिन्न राज्यों में भील, आदिवासी और दलितों के करोड़ों परिवार मिलेंगे, जिन्हें 70 साल बाद भी इसका फायदा तो छोडि़ए, नाम भी नसीब नहीं हुआ। आरक्षण में 8 लाख रुपए सालाना की आय, पांच एकड़ जमीन या 1000 वर्ग फुट के मकान की पाबंदियां, वाकई में किसी भी जरूरतमंद को लाभ पहुंचा पाएंगी, इस में शक है। और यदि 8 लाख रुपए सालाना आय वालों को सरकार गरीब मान रही है, तब फिर ढाई-तीन लाख रुपए वार्षिक आय वाले को आयकर देने लायक कैसे मान रही है? क्या वह गरीबी की सीमा में नहीं आता? फिर वह सीमा भी 8 लाख रुपए क्यों नहीं हो जानी चाहिए? बेहतर होगा कि हमारी सरकारें और राजनीतिक दल कूलड़ी में गुड़ फोडऩे के बजाय आपस में मिल-बैठकर तय करें कि वाकई में देश के जरूरतमंद तबके तक आरक्षण का लाभ कैसे पहुंचाया जाए। जाति, धर्म, आय, जातियों के मतदाताओं की संख्या, उनका बाहुबल, इस विचार में, यह सब गौण होना चाहिए। मिल-बैठ चर्चा करें तो संवैधानिक पाबंदियों का भी कोई समाधान अवश्य निकल आएगा। अन्यथा यह लोकसभा और राज्यसभा से पारित भी हो गया तो देश की जनता को उसका कोई लाभ नहीं मिलेगा, बल्कि इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक वैमनस्य और बढ़ता हुआ नजर आए।