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पटना

हजारों किलोमीटर यात्रा कर ब्राम्हणी चील का झुंड भागलपुर पहुंचा

दक्षिण भारत में बहुसंख्यक पाया जाने वाला ब्राम्हणी चील अब भागलपुर और बांका में भी दिखाई देने लगी है। विक्रमशिला गांगेय डाल्फिन अभयारण्य,भागलपुर में दजऱ्नों की संख्या में ब्राम्हणी चील देखे गई हैं।
 
 

पटनाNov 09, 2019 / 05:05 pm

Yogendra Yogi

हजारों किलोमीटर यात्रा कर ब्राम्हणी चील का झुंड भागलपुर पहुंचा

हजारों किलोमीटर यात्रा कर ब्राम्हणी चील का झुंड भागलपुर पहुंचा

भागलपुर(प्रियरंजन भारती): दक्षिण भारत ( South India ) में बहुसंख्यक पाया जाने वाला ब्राम्हणी चील ( Brahamni Kite ) अब भागलपुर और बांका में भी दिखाई देने लगी है। विक्रमशिला गांगेय डाल्फिन अभयारण्य,भागलपुर में दजऱ्नों की संख्या में ब्राम्हणी चील देखे गई हैं। बांका के रजौन प्रखंड स्थित खैरा गांव में भी इन चीलों को देखा गया। ऐसा भागलपुर और बांका में खूब बारिश होने के बाद संभव हो सका है। पर्यावरण संरक्षक दीपक कुमार ने बताया कि ऐसे अनुकूल माहौल में ये घोंसला बनाकर निवास करने और प्रजनन करने पहुंचे हैं। ब्राम्हणी चील दक्षिण भारत के कर्नाटक,तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं।

वर्षों बाद आई हैं ब्राहम्णी चील
मंदार नेचर क्लब के संस्थापक अरविंद मिश्रा ने बताया कि दस बारह वर्षों बाद ब्राम्हणी चील के दर्शन यहां हुए हैं। यहां अच्छी बारिश ( Good Rain ) होने के कारण मौसम इनके अनुकूल है। इसका प्रजनन काल ( Nesting Period ) दिसंबर से मार्च के बीच होता है। अरविंद मिश्रा ने बताया कि ब्राम्हणी चील अपने घोंसले के प्रति अधिक निष्ठावान होता है। ये तिनकों और पत्तों को जमाकर अपना घोंसला बनाते हैं। ये जल्दी घोंसला छोडऩा नहीं चाहते और लंबे समय तक एक ही घोंसला में रहना पसंद करते हैं। क्षेत्र में पानी की कमी हो जाने पर विवश होकर इन्हें अपना घोंसला छोड़कर नये पानीदार इलाके में जाना पड़ जाता है।

ब्राहम्णी नाम क्यों
मैथली दो बहिनों की कथा मे इसके जिक्र के कारण इसका नाम ब्राह्मणी चील पड़ा। यह मुख्यतया जलीय क्षेत्रों में निवास करने वाला दक्षिण भारतीय पक्षी है। यह गिद्ध और चील की तरह ही सड़े गले मांस और मछली खाता है। इसका रहन सहन विशेष है। घोंसले का सुंदर निर्माण इसका जातीय लक्षण में एक है।

वैज्ञानिक नाम, हैलीऐस्टर इंडस
ब्राह्मिनी चील का वैज्ञानिक नाम हैलीऐस्टर इंडस है। यह चील जाति का एक प्रसिद्ध पक्षी है जो मुख्य रूप से भारतीय पक्षी है किंतु थाइलैंड, मलय, चीन से लेकर आस्ट्रेलिया तक पाया जाता है और पानी के आस-पास रहता है। यह बंदरगाहों के आसपास काफी संख्या में पाया जाता है और जहाज के मस्तूलों पर बैठा देखा जा सकता है। यह सड़ी-गली चीजें खाता और पानी के सतह पर पड़े कूड़े कर्कट को अपने पंजों में उठा लेता है। यह धान के खेतों के आसपास भी उड़ता देखा जाता है और मेढकों और टिड्डियों को पकड़ कर अपना पेट भरता है।

19 इंच तक लंबाई
यह 19 इंच लंबा पक्षी है जिसका रंग कत्थई, डैने के सिरे काले और सिर तथा सीने का रंग सफेद होता है। चोंच लंबी, दबी दबी और नीचे की ओर झुकी हुई होती है। इसकी बोली अत्यंत कर्कश होती है। यह अपना घोंसला पानी के निकट ही पेड़ की दोफ की डाल के बीच काफी ऊँचाई पर लगाता है। एक बार में मादा दो या तीन अंडे देती है।

इसे लाल पीठ वाला समुद्री भी बाज कहते हैं
इसे लाल पीठ वाला समुद्री बाज भी कहा जाता है, एक माध्यम आकार की शिकारी पक्षी है, यह एक्सीपाईट्राइड परिवार की सदस्य है जिसमें कई अन्य दैनिक शिकारी पक्षी जैसे बाज, गिद्ध तथा हैरियर आदि भी आते हैं। ये भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया में पायी जाती हैं। ये मुख्य रूप से समुद्र तट पर और अंतर्देशीय झीलों में पायी जाती हैं। वयस्क पक्षी में लाल भूरे पंख तथा विरोधाभासी रंग में एक सफ़ेद रंग का सर तथा छाती होते हैं जिनको देख कर इन्हें अन्य शिकारी पक्षियों से अलग आसानी से पहचाना जा सकता है।

ब्राह्मिनी चील का रंग विशिष्ट तथा विरोधाभासी होता है जिसे सफ़ेद सर तथा छाती को छोड़ कर अखरोट के रंग से मिलता-जुलता माना जा सकता है, पंखों के किनारे काले होते हैं। किशोरों पक्षी अधिक भूरे होते हैं, परन्तु फिर भी इन्हें पीलेपन, छोटे पंखों तथा गोलाकार पूंछ के कारण एशिया में काली चील की प्रवासी तथा अप्रवासी प्रजातियों से अलग पहचाना जा सकता है। पंख के नीचे की तरफ कलाई के क्षेत्र में पीला धब्बा वर्ग के आकर में होता है तथा ब्यूटियो गिद्धों से अलग दिखता है।

चोंच गोलाकार नथुने
ब्राह्मिनी चील आकर में लगभग काली चील के बराबर ही होती है, तथा इसमें चीलों की विशिष्ट उड़ान भी दिखती है, जिसमें परों को कोण पर रखा जाता है, परन्तु इसकी पूंछ गोलाकार होती है जो कि मिल्वस प्रजाति की लाल चील तथा काली चील, जिनमें द्विशाखित पूछ होती है, से अलग दिखती है। हालांकि ये दोनों वंश एक दुसरे के काफी निकट के हैं।

इसकी आवाज़ मिमियाती हुई कीयु जैसी होती है।
दक्षिण एशिया में प्रजनन का मौसम अप्रैल से दिसम्बर है। दक्षिणी और पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में यह अगस्त से अक्टूबर तक तथा उत्तर व पश्चिम में अप्रैल से जून तक होता है। घोंसले छोटी शाखाओं एवं तीलियों से बनाये जाते हैं तथा इनके अंडे प्यालेनुमा आकार का निर्माण होता है, इसे पत्तियों से भी आरामदेह बनाया जाता है, कई प्रकार के पेड़ों पर इसे बनाते देखा गया है। वे एक ही क्षेत्र में कई वर्षों तक घोंसले बना कर उस स्थल के प्रति निष्ठा दिखाते हैं। कुछ दुर्लभ उदाहरणों में उन्हें पेड़ के नीचे जमीन पर घोंसला बनाते देखा गया है। एक बार में दो फीके-सफेद या नीले-सफेद अंडाकार अंडे जिनकी माप लगभग मिमी होती है, दिए जाते हैं। माता-पिता दोनों ही घोंसला बनाने तथा बच्चों को खिलाने में भाग लेते हैं, परन्तु ऐसा देखा गया है कि अण्डों को सिर्फ मादा ही सेती है। अंडे 26-27 दिनों तक सेये जाते हैं।

चमगादड़-खरगोश का भी शिकार
यह मुख्य रूप से एक मुर्दाखोर है, जो कि मुख्य रूप से मरे हुए केकड़ों और मछली को ही खाती है, विशेष रूप से दलदली भूमि और झीलों के निकट। परन्तु कभी-कभी यह चमगादड़ व खरगोश के रूप में जीवित शिकार भी करती है। कभी-कभी ये क्लेप्टोपैरासाईटिस्म प्रदर्शित करते हुए अन्य पक्षियों का शिकार चोरी करने का प्रयास भी करती है। एक दुर्लभ दृष्टांत में इसे शहद की मक्खी ऐपिस फ्लोरिया के छत्ते से शहद खाते हुए भी देखा गया है।


हवा में खेलक्रीड़ा
युवा पक्षी हवा में खेलपूर्ण व्यवहार में लिप्त हो सकते हैं, वे पत्तों को गिरा कर हवा में ही उन्हें पकडऩे का प्रयास करते हैं। पानी से मछली पकड़ते समय वे कई बार पानी में गिर जाती हैं, परन्तु वे तैर कर दोबारा से उडऩे में बिना किसी विशेष कष्ट के कामयाब हो जाती हैं। ये आमतौर पर किसी बड़े तथा एकान्त वृक्ष पर बरसा बनाती हैं तथा 600 तक पक्षियों को एक ही स्थान पर रहते देखा गया है। वे इक_े होकर बड़े शिकारी पक्षियों जैसे कि ऐक्विला चीलों को खदेड़ देती हैं। कुछ घटनाओं में जब ब्राह्मिनी चीलों ने इक_े होकर स्टेप चीलों (ऐक्विला रैपैक्स) को खदेडऩे का प्रयास किया, तो बड़ी चीलें घायल हो गयीं अथवा उनकी मृत्यु हो गयी।

संस्कृति में
ब्राह्मिनी चील, जिसे इंडोनेशिया में एलांग बॉन्डॉल कहा जाता है, जकार्ता की आधिकारिक शुभंकर हैं। भारत में इसे विष्णु के पवित्र पक्षी गरुड़ का समकालीन प्रतिनिधि माना जाता है। मलेशिया में लैंगकावी द्वीप का नाम इसी पक्षी के ऊपर पड़ा है (कावी का अर्थ गेरुए रंग का पत्थर, जिसका प्रयोग मिट्टी के बर्तनों की सज्जा में किया जाता है, तथा जो इस पक्षी के प्राथमिक रंग का प्रतिनिधि है)।

दंत कथा
बोउगेनविल द्वीप की एक दंतकथा का सम्बन्ध एक माता द्वारा अपने बच्चे को बागवानी करते समय केले के पेड़ के नीचे छोड़ गयी, तब वह बच्चा रोता हुआ आकाश में उड़ गया तथा ब्राह्मिनी चील, के रूप में परिवर्तित हो गया, उस बच्चे के गले में पड़ा कंठहार इस पक्षी के पंखों में परिवर्तित हो गया। मिथिला की पवित्र व कठिन पर्व ‘जितियाÓ निर्जला व्रतकथा में भी ब्राह्मणी चील का जिक्र आता है।

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