scriptकोई नहीं है सीता जैसी | Sita is immortal in Indian culture for her ideal character | Patrika News
धर्म और अध्यात्म

कोई नहीं है सीता जैसी

धरती पर ऎसी नारी ही है जो निर्माण और संहार
दोनों को पैदा करने का सामर्थ्य रखती है, वह राम और रावण दोनों को जन्म देती है

Apr 21, 2015 / 11:20 am

सुनील शर्मा

Sita Mata

Sita Mata

धरती पर ऎसी नारी ही है जो निर्माण और संहार दोनों को पैदा करने का सामर्थ्य रखती है। नारी राम और रावण दोनों को जन्म देती है। वही कृष्ण और कंस बनाती है। हकीकत में माता के वात्सल्य भरे परिवेश में ही मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ तथा समुचित विकास होता है।

सीता नाम सुनते ही उस माता का चेहरा हमारे सामने आता है जो अपने ही बच्चों-प्रजाजनों से अकारण दोषी ठहरा दी गई। निर्दोष, तेजोमय, स्वाभिमान से लहालोट सीता! मर्यादा को इतनी समर्पित कि धरती के रूप में मर्यादा खुद ही प्रकट हो गई और बोली कि सीते, चलो मेरे साथ धरती के भीतर। अब तुम पर हो रहे अन्याय मुझसे देखे नहीं जा रहे।

सीता जीवन भर समझाती रही कि समर्पित होने का अर्थ स्वाभिमान का काढ़ा बनाकर पी जाना थोड़े ही है! स्त्री-स्वाभिमान को बचाने को खड़ी सीता का चरित इतना लहरिल और पुता बना कि उसे बयां करते वाल्मीकि खुद रो पड़े। वे तब नहीं रोए जब राम को 14 सालों का वनवास हुआ या लक्ष्मण को शक्ति लगी। वे तो तब फूट-फूटकर रोने लगे जब निष्कलंक सीता माता पर प्रजा ने मिथ्या दोष लगाया।

श्रीराम वन जाने को तैयार हैं। माता कौसल्या से वन जाने को विदा लेकर सीता से मिलने और उन्हें सूचित करने जाते हैं। रीति-नीति और स्त्री धर्म पर तात्विक बातें सीता से कहते हैं-“मैं निर्जन वन में जाने के लिए पिता की आज्ञा से प्रस्थान कर रहा हूं। अब अयोध्या के युवराज भरत होंगे। पिता दशरथ ने भरत को सदा के लिए युवराज पद दिया है अत: तुम्हें प्रयत्नपूर्वक भरत को प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए। हां, तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा न करना क्योंकि समृद्धिशाली पुरूष दूसरे पुरूष की स्तुति सहन नहीं कर पाते। अपनी सखियों के अनुरूप व्यवहार करते हुए तुम सखियों के निकट रहना।”

रघुनंदन की बातें धीरज से सुनकर माता सीता का सपाट और अकुंठ जवाब पढिए-हे निष्पाप रघुनंदन, आप मुझे जिसके अनुकूल चलने की शिक्षा दे रहे हैं और जिसके लिए आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया है, उस भरत के वशवर्ती और आज्ञापालक बनकर आप ही रहिए, मैं नहीं रहूंगी! यह है सीता की उच्छल, निर्मल और सहज प्रस्फुरित भाषा। यह एक मानिनी पत्नी की तरंगायित भाषा है जिसमें जिद है, इसरार है, रोष है, मीठा-सा द्रोह है। सीता तो इस मुकाम तक पहुंचती है कि “मुझे सुसराल में किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए इस विषय में मेरे माता-पिता ने मुझे भरपूर शिक्षा दे रखी है। हे प्रभो, इस समय इस विषय पर मुझे उपदेश देने की कोई जरूरत नहीं है। अत: हे महावीर, आप ईर्ष्या और रोष को छोड़कर पीने से बचे हुए जल की भांति मुझे नि:शंक होकर अपने साथ वन में ले चलिए।”

सीता के सामाजिक सरोकार इतने अच्छे थे कि वन-प्रदेश का एक-एक व्यक्ति ग्राम वधुओं से लेकर केवट तक उनमें पूरा ममत्व पाता है। रावण की वाटिका में भी उन्होंने त्रिजटा जैसी सखी ढूंढ़ निकाली। सीता का व्यक्तित्व-नियोजन कैसा अद्भुत है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि रावण जैसे दुष्ट को भी श्रीराम के आने तक वे एक दूरी से साधे रही। बीहड़ वन में अकेले अपने दो बच्चे जने। लव-कुश जैसे तेजस्वी और अकुंठ संतान को लिखाया, पढ़ाया और ऎसा सिखाया कि श्रीराम की सारी सेना ही धराशायी हो गई। वस्तुत: संसार की सारी स्त्रियों के लिए आदर्श की गंगा सीता वह है जिसके पति को एकबार और उसे दो बार वनवास झेलना पड़ा लेकिन साहसिक सच्चे चरित से ऎसा वातावरण बनाया जो आज भी कह रहा कि माता सीता आप भारत हो!

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