ऐसे में आज भी कई ऐसी हिंदू पौराणिक मान्यताएं प्रचलित हैं, जिनसे व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है। इन्हीं में से एक आस्तिक मुनि के संबंध में मान्यता है कि उनका नाम लिए जाने पर कोई भी सर्प आपसे दूर रहता है और नुकसान भी नहीं पहुंचाता है।
दरअसल हिंदू धर्म के अनेक ग्रंथों में नागों से संबंधित कथाएं पढ़ने को मिलती है। इन्हीं में से एक महाभारत के आदि पर्व में नागों की उत्पत्ति और राजा जनमेजय के नागदाह यज्ञ से जुड़ी है।
नाग वंश की उत्पत्ति:
महाभारत के अनुसार, महर्षि कश्यप की 13 पत्नियों में से एक कद्रू भी थी। एक बार महर्षि कश्यप ने कद्रू द्वारा की गई सेवा से प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर कद्रू ने उनसे एक हजार तेजस्वी नाग पुत्रों का वर मांग लिया। जिसके बाद महर्षि कश्यप के वरदान के फलस्वरूप नाग वंश की उत्पत्ति हुई।
आस्तिक की उत्पत्ति
माना जाता है नागों के राजा व कद्रू के पुत्र वासुकि ने ऋषि जरत्कारू से अपनी बहन मनसादेवी का विवाह करवाया। जिसके कुछ समय बाद मनसादेवी को एक पुत्र हुआ, नाम रखा गया ‘आस्तिक’। यह आस्तिक नागराज वासुकि के घर पर पला और आस्तिक को च्यवन ऋषि ने वेदों का ज्ञान दिया।
कथा के अनुसार उस समय राजा जनमेजय का शासन पृथ्वी पर था। उस समय यानि कलियुग के प्रारंभ में ऋषि पुत्र ने अपने पिता के अपमान के कारण राजा परीक्षित को श्राप दिया, जिसके चलते तक्षक नाग ने राजा परीक्षित को डस लिया, और उनकी मृत्यु हो गई।
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ऐसे में जब पिता परीक्षित की मृत्यु का समाचार राजा जनमेजय को मिला तो वह बहुत दुखी हुआ, लेकिन जैसे ही उसे पता चला कि उनकी मृत्यु तक्षक नाग के काटने से हुई है, तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए। और इसी समय नागदाह यज्ञ करने का राजा जनमेजय ने निर्णय ले लिया।
इसके बाद नागदाह यज्ञ शुरु होते ही सभी प्रकार के सर्प इस यज्ञ में आ-आकर गिरने लगे। यज्ञ के दौरान ऋषि मुनि नाम ले लेकर आहुति देते और सर्प अग्नि कुंड में आकर गिर जाते। यह देख यज्ञ के भयभीत तक्षक देवराज इंद्र के यहां छिप गया।
आस्तिक मुनि ने रोका था नागदाह यज्ञ
नाग जाति को समूल नष्ट होते देख नागों ने आस्तिक मुनि से संरक्षण के लिए प्रार्थना की। इस पर प्रार्थना से प्रसन्न होकर आस्तिक मुनि ने नागों को बचाने से पूर्व उनसे एक वचन लिया कि जिस स्थान पर नाग उनका नाम लिखा देखेंगे या जहां उनका नाम लिया जाएगा, उस स्थान में नाग प्रवेश नहीं करेंगे और उस स्थान से 100 कोस दूर ही रहेंगे।
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इसके बाद आस्तिक मुनि यज्ञ स्थल पर आए और यज्ञ की स्तुति करने लगे। राजा जनमेजय ने यह देख उन्हें वरदान देने के लिए बुलाया। इस पर राजा जनमेजय से आस्तिक मुनि सर्प यज्ञ बंद करने का निवेदन किया। राजा जनमेजय ने पहले तो इस संबंध में इंकार किया, लेकिन ऋषियों के समझाने पर बाद में वे मान गए।
इस प्रकार आस्तिक मुनि ने धर्मात्मा सर्पों को भस्म होने से बचा लिया। आस्तिक मुनि द्वारा लिए गए नागों से वचन के चलते ही ये माना जाता है कि सर्प भय के समय जो भी व्यक्ति आस्तिक मुनि का नाम लेता है, सांप उसे नहीं काटते। साथ ही आज भी सर्प उस स्थान में प्रवेश नहीं करते, जहां आस्तिक मुनि का नाम लिखा होता है।
इस मान्यता के कारण ही आज भी कई लोग अपने घर की बाहरी दीवार पर सर्प से सुरक्षा के लिए ‘आस्तिक मुनि की दुहाई’ लिखते हैं।