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“न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!”

– माण्डवी से उर्मिला बोलीं, समय का कोई भी षड्यंत्र न चार भाइयों के बीच दरार डाल सकेगा, ना ही चारों बहनों के हृदय दूर होंगे।
– कैकई से बाले राम, “तो इसके लिए पिताश्री को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी माता! क्या राम ने कभी आपके आदेश की अवहेलना की है जो आज कर देगा। बताइये, मुझे कब वन को निकलना होगा?”

Nov 25, 2022 / 10:48 am

दीपेश तिवारी

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अयोध्या के राजकुल में नियति आग लगाने में सफल हो गयी थी। कैकई की कुलघाती योजना की थोड़ी सी जानकारी मिलते ही चारों बहुएं सन्न रह गयी थीं। इस विकट परिस्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए, यह उन्हें नहीं सूझ रहा था सो उन्होंने मौन साध लिया था। परिस्थिति जब अपने वश में नहीं हो तो मौन साध लेना ही उचित होता है।

अगले दिन तक आग समूचे अंतः पुर में पसर गयी थी। कैकई ने भरत का राज्याभिषेक और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा था। राजा दशरथ निढाल पड़े थे। रानी कौशल्या अपने कक्ष में पड़ी रो रही थीं। हर ओर उदासी पसरी हुई थी, हर आंख भीगी हुई थी।

इस दुख और उद्विग्नता की घड़ी में कुछ सुन्दर था तो यह कि राजकुल की स्त्रियों ने स्वयं को नियंत्रित रखा था। कहीं कोई आरोप प्रत्यारोप नहीं लग रहे थे, कहीं कोई दोषारोपण नहीं हो रहा था।

अपराधबोध से भरी माण्डवी कभी सीता के पास जातीं तो कभी माता कौशल्या के पास, पर उन्हें कहीं शांति नहीं मिलती थी। सीता उन्हें बार बार शांत रहने को कहतीं पर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। व्यग्र माण्डवी उर्मिला के पास गईं और कहा, “मैं क्या करूं उर्मिला? मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा।”

उर्मिला ने शालीनता से कहा, “आप इतनी अधिक व्यग्र क्यों हैं दाय! बड़े पाहुन को सबसे अधिक प्रेम करने वाली माता कैकई ही यदि उन्हें वन भेजने पर अड़ी हैं, इसका अर्थ यह है कि वे कुछ कर नहीं रहीं बल्कि नियति ही उनसे यह करा रही है। पर इसमें आपका क्या दोष?”

– तुम समझ नहीं रही उर्मिला! इस विपत्ति के क्षण में मन होता है कि सिया दाय के साथ खड़ी रहूं, बड़ी मां के साथ रहूं, पर नहीं रह पाती। मुझे माता कैकई के साथ भी रहना होता है। मैं जानती हूँ कि वे गलत हैं, फिर भी वे मेरी मां हैं। मैं क्या करूं उर्मिला?”

– नियति क्या खेल खेलने जा रही है यह मुझे नहीं पता दाय! पर इतना अवश्य समझ रही हूं, माता कैकई सबसे अधिक स्वयं का अहित कर रही हैं। समय का कोई भी षड्यंत्र न चार भाइयों के बीच दरार डाल सकेगा, ना ही चारों बहनों के हृदय दूर होंगे। यदि कोई दूर होगा, तो माता कैकई दूर होंगी। सबसे अधिक संवेदना की आवश्यकता उन्हें ही है। आप उन्हीं के साथ रहें दाय!”

– पर कहीं सिया दाय या बड़ी मां के मन में हमारे लिए…”

– उनके सम्बन्ध में ऐसा सोचना भी पाप है दाय! इस विपत्ति काल में सबसे आवश्यक यही है कि हम विश्वास बनाये रखें। सभी समझ रहे हैं कि यह माता कैकई का नहीं नियति का खेल है। किसी के अंदर माता कैकई को लेकर बुरे भाव नहीं हैं। आप उन्ही की सेवा में रहें।”

माण्डवी का मन तनिक शांत हुआ। वे अपने कक्ष की ओर गईं।

राज काज में व्यस्त युवराज राम जब संध्याकाल में अनुज संग अंतः पुर में लौटे तो उन्हें इस प्रपंच की जानकारी मिली। वे भागे भागे कोप भवन की ओर गए और पलंग पर निढाल पड़े पिता के चरणों में बैठ गए।

कठोर हो चुकी कैकई ने राम के समक्ष भी अपनी मांग दुहराई तो मुस्कुरा उठे राम ने कहा, “तो इसके लिए पिताश्री को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी माता! क्या राम ने कभी आपके आदेश की अवहेलना की है जो आज कर देगा। बताइये, मुझे कब वन को निकलना होगा?”

कैकई जानती थीं कि राम उनकी इस अनर्थकारी मांग को भी सहजता से मांग लेंगे। पर मनुष्य के हिस्से में कुछ अभागे क्षण ऐसे भी आते हैं जो उसके समूचे जीवन पर भारी पड़ जाते हैं। कैकई के जीवन में अभी वे ही अभागे दिन चल रहे थे। फिर भी वे राम के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकीं। कुछ क्षण बाद राम ने ही कहा- मैं कल ही वनवास के लिए निकल पडूंगा माता। भरोसा रखियेगा, आपका राम वन में भी रघुकुल की मर्यादा का पूर्ण निर्वहन करेगा।

राम कक्ष से निकलने के लिए उठे तो देखा, पिता ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया था। वे उनकी ओर मुड़े तो बोले- “न जाओ राम! इस कुलघातिनी के कारण मुझे न त्यागो पुत्र!”

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