पूरी तरह से बदल जाएगा आर्कटिक का वातावरण: शोध के अनुसार 2035-2067 तक लगातार सितंबर में बर्फ न होने की आशंका है। उस अवधि के भीतर का सटीक वर्ष इस बात पर निर्भर करेगा कि दुनिया कितनी जल्दी जीवाश्म ईंधन जलाने की मात्रा को कम करती है। कोलोराडो बोल्डर विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय और समुद्री विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर और शोध की प्रमुख लेखिका एलेक्जेंड्रा जाह्न ने कहा कि यह आर्कटिक को पूरी तरह से अलग वातावरण में बदल देगा। इसलिए भले ही बर्फ-मुक्त स्थितियों को टाला नहीं जा सकता, फिर भी लंबे समय तक इनसे बचने के लिए कार्बन उत्सर्जन को यथासंभव कम रखने की आवश्यकता है।
पांच दशकों से लगातार घटती जा रही बर्फ: पिछले साल अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने जब सैटेलाइट ट्रैकिंग शुरू की तो आर्कटिक में छठी सबसे कम बर्फ देखी। इस दौरान बर्फ अपनी वार्षिक न्यूनतम सीमा 4.23 मिलियन वर्ग किमी तक पहुंच गई। यह कोई नया चलन नहीं है, लेकिन इसकी स्थिति बिगड़ती जा रही है। आर्कटिक समुद्री बर्फ कम से कम 1978 से सिकुड़ रही है, जब नासा ने सैटेलाइट के साथ इसका अवलोकन करना शुरू किया था।
तट पर रहने वाले लोगों के लिए बढ़ेंगी चुनौतियां:
इन आगामी हालातों की वजह से न केवल आर्कटिक वन्यजीवों को नुकसान होगा क्योंकि उनका निवास स्थान पिघल जाएगा। बल्कि तट पर रहने वाले लोगों को भी संघर्ष करना पड़ेगा। समुद्री बर्फ, तट पर लहरों के प्रभाव को कम करती है, जिसका अर्थ है कि यदि यह नष्ट हो जाती है तो लहरें मजबूत और बड़ी होंगी, साथ ही अधिक कटाव का कारण बनेंगी।
लाखों लोगों का घर भी आर्कटिक