भारत का कल तो आज की एक वक्त की रोटी जुटाने में ही लगा है!
हमारी ज़िन्दगी का सबसे हसीं वक़्त होता है बचपन का। जो जी में आये करते थे और जो जी चाहता था पूरा भी हो जाता था। मर्ज़ी से सोते थे मन मर्ज़ी से उठते थे, ज़्यादातर मनमानियां तो जिद ज़बरदस्ती से पूरी करवा लिया करते थे..
•Dec 09, 2016 / 06:15 pm•
राहुल
bharat ka kal to aaj ki ek waqt ki roti ki jugad mei laga hai
राहुल मिश्रा-
हमारी ज़िन्दगी का सबसे हसीं वक़्त होता है बचपन का। जो जी में आये करते थे और जो जी चाहता था पूरा भी हो जाता था। मर्ज़ी से सोते थे मन मर्ज़ी से उठते थे, ज़्यादातर मनमानियां तो जिद ज़बरदस्ती से पूरी करवा लिया करते थे। घर में सबके लाडले होते और काम के नाम पर तो खाना पीना, खेलना और सो जाना। बिना वक़्त की परवाह किये खेलना, दोस्तों के साथ रोज़ नई शरारतों के रिकॉर्ड तोड़ देना। माँ पीछे पीछे खाने की थाली लिए घूमती थी, पापा रोज़ शाम खिलौने या आइस क्रीम दिलाने बाज़ार ले जाते। हम सबकी उम्र का सबसे बेहतरीन वक़्त तो बचपन का ही होता है।
क्या आप भी हकीकत से अनजान हैं?
क्या सच में ये बात सबको एक सी ही लगेगी? अगर हाँ तो फिर आप हकीक़त से पूरी तरह से अनजान हैं! क्या आपने कभी सड़क किनारे कूड़ा बीनते आधे नंगे छोटे छोटे बच्चों पर कभी ध्यान दिया है? किसी ढाबे पर खाना खाते हुए, आपके कानो में कभी ये आवाज़ नही पड़ी?? “ओये छोटू, ये झूठे बर्तन कौन उठाएगा”. क्या आपको नहीं मालूम कि मजदूर वर्ग में सबसे छोटे मजदूर अपनी ताकत से ज्यादा मेहनत तो करते हैं पर मेहनताना सिर्फ एक बच्चे के नाम का मिलता हैं। क्या आपने कभी किसी बच्चे के लगातार भीख मांगने से तंग आ कर अपनी गाड़ी का शीशा नहीं सरका लिया। क्या आपने रेड लाइट होने पर कुछ बच्चों को रंगबिरंगे गुब्बारे और लाल गुलाब हाथ में लिए हुए हर किसी से उन्हें खरीदने की गुहार लगाते कभी नही सुना??? क्या आपने अपने किसी रिश्तेदार के घर कामवाली बाई का खर्चा बचाने के लिए किसी छोटी सी बच्ची को बस दो वक़्त की रोटी के लिए घर का सारा काम करते नही देखा?? तो किस दुनिया में जी रहे हैं आप?? कि यहाँ भारत का उज्जवल भविष्य किसी ट्रेन के पीछे, चाय ले लो चाय, चीखता भाग रहा है और आप कह रहे हैं कि आप इस सच के आईने से अब तक रूबरू ही नही हुए।
देश का भविष्य होते हैं बच्चे-
अगर बच्चों को किसी देश के भविष्य के रूप में देखा जाता है तो भारत का कल तो आज की एक वक़्त की रोटी जुटाने में लगा है। जहाँ उन्हें इस उम्र में किताबों से भरे बस्ते उठा कर थकने के बहाने बनाने चाहिए वहां वो सर पर चार और बगल में दो इंटें उठाये भट्टी में खुद को तपाते हैं। एक ओर कोई बच्चा सुबह स्कूल न जाने के बहाने में थोड़ी देर सोने की जिद करता है और यहाँ वो सूरज उगने से पहले सूनी पड़ी शहर की लम्बी चौड़ी सड़कों पर पड़ा कूड़ा चुनने को उठ जाता है, इस उम्मीद में कि कहीं किसी का झूठा उसके हिस्से का हो तो उसके दिन भर की भूख मिट सके। ऐसे बच्चे अपने दांतों से लोहे की नुकीली तारों को भी तोड़ने की क्षमता रखते हैं पर अफ़सोस की उनमें खुद को अपने ही चारों और बनी हदों को पार करने की हिम्मत नही हो पाती। आप सोच रहे होंगे कि इनके माँ बाप इन्हें इस तरह दर-बदर भटकने को कैसे छोड़ देते हैं पर हाँ यही सच है कि उनके माँ बाप ही उन्हें लोगो के सामने हाथ फैला कर अपना पेट पालना सिखाते हैं। बच्चों के आसुंओ से कठोर से कठोर दिल भी पिघल जाते हैं तो यही एक साधन तो रहता है उन्हें मेहनत के बिना भी रोटी कमाने का और जो अनाथ होते हैं उनका एक दलाल होता है जो किसी जल्लाद से कम नही होता, अगर उसका बस चले तो वो इन बच्चों की मासूमियत तो छोड़ो उनके खून का एक एक कतरा बेच कर अपनी जेब भरने में एक बार भी संकोच न करे।
भारत में सबसे ज्यादा हैं बाल मजदूर-
आज दुनिया भर में 215 मिलियन ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। और इन बच्चों का समय स्कूल में कॉपी-किताबों और दोस्तों के बीच नहीं बल्कि होटलों, घरों, उद्योगों में बर्तनों, झाड़ू-पोंछे और औजारों के बीच बीतता है। भारत में यह स्थिति बहुत ही भयावह हो चली है। दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में ही हैं। 1991 की जनगणना के हिसाब से बाल मजदूरों का आंकड़ा 11.3 मिलियन था। 2001 में यह आंकड़ा बढ़कर 12.7 मिलियन पहुंच गया।
इन्हीं आंकड़ों के बीच मटमैले से कपड़ों के नीचे उनकी पाक रूह की चमक कोई नही देखता। मासूम आँखों के पीछे की रोज़ आंसूओ को रोकने की जिरह कोई नही देखता। कंकर, पत्थरों के बीच बीतते बचपन से उनका शरीर तो मज़बूत हो जाता है पर उनका दिल रूई जितना कोमल रहता है जो इस दुनिया की कुटिल रीति से, उनके ऊपर होते हर किसी द्वारा किये गए अत्याचारों से हर बार छलनी होता रहता है। उनके बाजुओं की ताकत का कोई सानी नही होता पर उनके ज़मीर की ओर हर किसी से ऊँगली उठ जाती है। जब भी वो अपने सपनो को परवाज़ देने की कोशिश करते हैं तो हर बार सब समाज में उनकी औकात दिखा कर दुत्कार देते हैं। और इस लड़ाई को वो सारी उम्र नही जीत पाते कि उन्हें भी इंसान होने का उतना ही हक है जितना की बाकी सब को। उन्हें भी जीने का हक है , उन्हें भी सपने देखने का हक है, उन्हें भी अपनी किस्मत बदलने का हक है, उन्हें भी अपने हाथों की लकीरों को मिटा कर अपनी मंजिल और रास्ता चुनने का हक है, जितना की इस समाज के ठेकेदारों का है।
हर गली चौराहे पर मिल जाएंगे आपको ऐसे बच्चे-
बड़े शहरों के साथ-साथ आपको छोटे शहरों में भी हर गली नुक्कड़ पर कई राजू-मुन्नी-छोटू-चवन्नी मिल जाएंगे जो हालातों के चलते बाल मजदूरी की गिरफ्त में आ चुके हैं। और यह बात सिर्फ बाल मजदूरी तक ही सीमित नहीं है इसके साथ ही बच्चों को कई घिनौने कुकृत्यों का भी सामना करना पड़ता है। जिनका बच्चों के मासूम मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। इन एनजीओ के अनुसार 50.2 प्रतिशत ऐसे बच्चे हैं जो सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं। 53.22 प्रतिशत यौन प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं। इनमें से हर दूसरे बच्चे को किसी न किसी तरह भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। 50 प्रतिशत बच्चे शारीरिक प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं।
आपकी नज़रों में क्या है उनका भविष्य-
आप ही सोचिये उन भीख मांगते बच्चों का आप अपनी नज़रों में क्या भविष्य देखते हैं? आप भी तो उनसे नज़रे इस तरह फेर देते हैं जैसे कि वो बस आपसे कुछ पैसो की मांग करने के लिए ही पैदा हुए हैं। उनके पास से गुजरने के बाद आप में से कितनो के मन में ख्याल आता है कि उन बच्चों का कल कैसा होगा? हर दूसरे दिन हमारे माथे पर बढ़ती मंहगाई की शिकन उभर आती है। अक्सर हम शिकायतें करते नहीं थकते कि किस तरह आज के समय में बुनियादी सुविधाए पूरे करते ही ज़िन्दगी बीत जाती है और सच पूछें तो उन बच्चों को हम जब भीख नही देते तो यही बात तो ज़हन में आती है कि ” जब अपनी ही ज़रूरतें पूरी नही हो रही तो इन्हें मदद कैसे करें “, पर ज़रा देर ठहर के कभी सोचा है कि इस बढती मंहगाई की सामना तो इन्हें भी करना पड़ता होगा ना। हमारे पास तो फिर भी कमाई का एक स्थाई साधन है पर वो बच्चे तो जीते ही हमारे उन छुट्टे की बदौलत हैं जो जेब में पड़े रहते हैं और हम उन्हें गिनते भी नही।
नहीं बचा आत्मसम्मान-
कभी गौर किया है कि उन बच्चों को देखते ही जब हमे घिन आ जाती है और उनकी गुहार को हम दुत्कार देते हैं और डांट कर आगे जाने को कह देते हैं तो भी वो हमसे कोई शिकायत नही करते। ज़रा सोचिये उनका आत्मसम्मान किस तरह कचोट दिया गया होगा कि उनके अस्तित्व की तख्ती पर हम थूक कर भी चले जाते हैं तो भी उनका गुस्सा मौन ही रहता है और फिर भी वो मुड़ कर एक बार ज़रूर देखते हैं कि कुछ देने को आपका हाथ जेब में तो नही गया कहीं। अब मेरी आप सब से सिर्फ एक ही बिनती है कि आप उनकी किस तरह से मदद करना चाहते हैं वो आप पर निर्भर करता है। आप मदद करना भी चाहते हैं या नही वो भी सिर्फ आपकी मर्ज़ी है। पर कम से कम आप उन्हें इंसान का दर्जा तो दे ही सकते हैं। उन्हें अपने पैर की जूती समझने का हक नही है आपको। आपको कभी एहसास ही नही हो पायेगा कभी कि वो रोज़ जिंदा रहने के लिए किस जद्दोजहद से गुज़रते हैं। अगर हम उनका जीवन बेहतर नही बना सकते तो कम से कम जीते जी उनको जहन्नुम का एहसास भी न करवाए। वो भी सम्मान, एकता, और इंसानियत के काबिल हैं।
बदलने होंगे हालात-
भारत में बाल मजदूरों की इतनी अधिक संख्या होने का मुख्य कारण सिर्फ और सिर्फ गरीबी है। यहां एक तरफ तो ऐसे बच्चों का समूह है बड़े-बड़े मंहगे होटलों में 56 भोग का आनंद उठाता है और दूसरी तरफ ऐसे बच्चों का समूह है जो गरीब हैं, अनाथ हैं, जिन्हें पेटभर खाना भी नसीब नहीं होता। दूसरों की जूठनों के सहारे वे अपना जीवनयापन करते हैं।
जब यही बच्चे दो वक्त की रोटी कमाना चाहते हैं तब इन्हें बाल मजदूर का हवाला देकर कई जगह काम ही नहीं दिया जाता। आखिर ये बच्चे क्या करें, कहां जाएं ताकि इनकी समस्या का समाधान हो सके। सरकार ने बाल मजदूरी के खिलाफ कानून तो बना दिए। इसे एक अपराध भी घोषित कर दिया लेकिन क्या इन बच्चों की कभी गंभीरता से सुध ली?
बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने के लिए जरूरी है गरीबी को खत्म करना। इन बच्चों के लिए दो वक्त का खाना मुहैया कराना। इसके लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। सिर्फ सरकार ही नहीं आम जनता की भी इसमें सहभागिता जरूरी है। हर एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से सक्षम हो अगर ऐसे एक बच्चे की भी जिम्मेदारी लेने लगे तो सारा परिदृश्य ही बदल जाएगा।
Hindi News/ Special / भारत का कल तो आज की एक वक्त की रोटी जुटाने में ही लगा है!