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लूर जैसी परम्पराओं को बिसराया तो खो देंगे अपनी पहचान

प्रसंगवश

Mar 02, 2023 / 06:08 pm

Sandeep Purohit

लूर जैसी परम्पराओं को बिसराया तो खो देंगे अपनी पहचान

लूर जैसी परम्पराओं को बिसराया तो खो देंगे अपनी पहचान

संदीप पुरोहित

लूर एक विशिष्ट सामूहिक लोकनृत्य है, जिसमें महिलाएं गाते-नाचते अपने विचारों को अभिव्यक्ति देती हैं
ती ज-त्योहार से लेकर हर छोटे-बड़े आयोजन महज आयोजन ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति से जुड़ाव रखने व अपणायत को बचाए रखने का बेहतरीन सेतु भी होते हैं। ऐसे सेतु जो परम्पराओं को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनाए रखने में भी आगे रहते हैं। इनमें जाति व वर्ग-समुदाय का भेद कहीं आड़े नहीं आता। होली नजदीक है। राजस्थान का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं, जहां होली के स्थानीय आयोजनों की कोई खासियत न हो। एक दौर था जब होली नजदीक आने के एक पखवाड़े पहले ही ढप-चंग की थाप सुनाई देने लगती थी। होली की मस्ती में फाल्गुन में गांव-गांव में गेर, फाग गायन और लूर की धूम रहती थी। पर समय बदलने के साथ आज न केवल लोगों की स्मृति से ये आयोजन दूर होते जा रहे हैं बल्कि ऐसा लगने लगा है कि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो होली की मस्ती का दौर भूली-बिसरी बातें बन कर रह जाएगा।
मारवाड़ का ही उदाहरण लें। कभी समूचे क्षेत्र में ‘लूर’ की धूम रहती थी। अब यह परम्परा विलुप्त होने के कगार पर है। एक दौर में महिलाओं के लिए अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम रही लूर रस्मअदायगी तक सीमित रह गई है। पुरानी पीढ़ी आज भी याद करती है कि अकाल और अभावों से जूझता मारवाड़ इन परंपराओं के साथ होली के रंग में डूब जाता था। लूर एक विशिष्ट सामूहिक लोकनृत्य है, जिसमें महिलाएं गाते-नाचते अपने विचारों को अभिव्यक्ति देती हैं। एक महिला दूसरी से गीत में सवाल करती है और दूसरी महिला उसी अंदाज में जवाब देती है। लूर जैसी परंपराओं को संरक्षण की दरकार है। इसलिए भी कि अब मुट्ठी भर लोग ही इस लोक कला से जुड़े हुए हैं।
चिंता इसी बात की है कि मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा प्रहार हमारी संस्कृति पर ही हुआ है। बदलाव की होड़ में हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और थाती को बचा नहीं पाए तो पहचान खो बैठेंगे। अपणायत लिए लूर के साथ-साथ प्रदेश के दूसरे हिस्सों में होली से जुड़ी परम्पराओं को सामाजिक समरसता के लिए भी बचाए रखना जरूरी है। हमें सोशल मीडिया और आधुनिक संचार साधनों का प्रयोग इस तरह करना चाहिए, जिससे हमारी लोक संस्कृति को संबल मिल सके। संचार क्रांति अभिव्यक्ति के ऐसे पुरातन उपायों को नया स्वरूप दे सकती है। देखा जाए तो लूर जैसे आयोजन ही हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखने का काम करते हैं, माटी की महक को जिंदा रखते हैं।

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