आज लोग गर्मी से त्रस्त है और सभी पेड़-पोधें लगाने का महत्व समझ रहे है,लेकिन बूढ़े पेड़ों को सब भूलते जा रहे है। त्रिदेव के रूप में पहचान बनाने वाले नीम, बरगद व पीपल के पेड़ों को लोगों ने जगह की कमी के कारण लगाना ही बंद सा कर दिया है। पशु-पक्षियों के लिए पंच मेवा माना जाने वाला गूलर का पेड़ भी अब नजर नहीं आता है। आजकल लोग घरों के बाहर ऐसे पेड़-पोधे लगा रहे हैं जो कम जगह घेरते है तथा दिखने में अच्छे लगते है। परम्परागत नीम, आम, बरगद, पीपल व गूलर की जगह आजकल गूलमोहर, सप्तपर्णी, टीकोमा आदि ने ले लिया है। पिछले कई सालों में पीपल, बरगद और नीम के पेडों को सरकारी स्तर पर लगाना बंद किया गया है। जिसका दुष्परिणाम हम देख रहे है। अब जब वायु मंडल में रिफ्रेशर ही नहीं रहेगा तो गर्मी तो बढ़ेगी ही।
जिले के हिंडोली उपखंड का भीलवाड़ा जिले से लगता ग्रामीण क्षेत्र खेर के पेड़ों की अधिकता के कारण खेराड़ के रूप में जाना जाता रहा है,लेकिन इसकी लकड़ी कीमती होने के कारण खेराड़ में भी खेर का अस्तित्व खतरे में है। बूंदी की पहचान रेणी या खिरनी के पेड़ भी अब खत्म हो चुके है और नए पोधे तैयार ही नहीं किए जा रहे है। इसी प्रकार तेंदू, पलाश, बीजासाल, इमली, केंत, अर्जुन, पीलू, सालर, कड़ाया आदि के वृक्षों पर भी समाप्त होने का खतरा मंडराने लगा है।