त्वं गृहाण, मोक्षरूपं विजयम्।
मह्यं देहिछलरहितं मनुष्यत्वम्। ब्रह्मत्व को प्राप्त कर मैं क्या करूँगा? मोक्षरूप विजय तुम ले लो। मुझे चाहिए केवल छल-कपटरहित मनुष्यता। संस्कृत का कवि मनुष्यता को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जीवन मूल्य मानता है। वर्तमान में किंकर, किन्नर तथा वानर के समान आचरण करने वाले मनुष्यों से कवि हृदय खिन्न है। समकालीन संस्कृत साहित्य के शलाका कवि प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ( Acharya Radhavallabha Tripathi ) ने वर्तमान युग बोध को रेखांकित करते हुए कहा :-
आज्ञापालनमात्रनष्टविभवा: नो ते वयं किङ्करा:।
ये नृत्यन्ति निरर्थकं तव कृते नो ते वयं किन्नरा:।
ये कूर्दन्ति च रन्जितुं मनो न स्मो वयं वानरा:
,चे जीवन्ति सदैव मानसहितं, राजन! वयं ते नरा:।।
न त्वं ब्राह्मणवादी न वेदवादी न जातिवादी वा।
नूनमभूस्त्वं ब्राह्मण सम-विश्वाभ्युदयवादी।।
आचार्य रामकरण शर्मा ने ब्राह्मण का एक नूतन लक्षण प्रदान किया है। जो समग्र विश्व के अभ्युदय में संलग्न रहे, वही ब्राह्मण है। इसके अतिरिक्त कवि ब्राह्मणवाद, वेदवाद तथा जातिवाद का खण्डन करता है। आज हमारे राष्ट्र को ऐसे ही अभ्युदय-प्रक्रिया में अहोरात्र रत रहने वाले ना-रिकों (ब्राह्मण) की अत्यधिक अपेक्षा है। आचार्य अभिराज राजेन्द्र मिश्र ( Acharya Abhiraj Rajendra mishra ) ‘शालभंजिका’ नामक गज़़ल संग्रह में कबीर को पुनर्परिभाषित करते हुए प्रतीत होते हैं : –
न यो हिन्दुपक्षे न च तुर्कपक्षे।
स निश्चप्रचं सत्यवक्ता कबीरा।।
जो न तो हिन्दुओं के पक्ष में है और न ही यवनों के पक्ष में है, वह निश्चित ही सत्यवक्ता कबीर होगा। यहां कवि को कबीर के सत्यवक्तृत्व को लक्ष्य करना जितना अभीष्ट है उतना ही वर्गभेद पर प्रहार करना भी। जब कबीर को उद्धृत किया गया तो आचार्य मिश्र वर्गभेद रूप संकुचित भावना का निषेध करते हुए प्रतीत होते हैं। कबीर को उन्होंने एक मुहावरे के रूप में गढ़ा है। समकालीन संस्कृत कविता ने आधुनिक युग-बोध को नई विधाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का भी उपक्रम किया है। जापानी काव्य विधा ‘हाइकू’ में डॉ. हर्षदेव माधव ने अनेक वेधक प्रयोग किये हैं और राजनीति के कटु यथार्थ को व्यक्त किया है। के.राजन्न शास्त्री ( K. Rajanna shastri ) मुक्तछन्द कविता में रूढिय़ों पर प्रहार करते हुए संस्कृत भाषा पर थोपे गये मिथ्या-आरोपों का खण्डन भी करते हैं :-
गङ्गाजलस्य पानेन किम्
व्रतानामनुष्ठानेन किम्
तीर्थानां यातेन किम्
यदि भावशुद्धिर्नास्ति।
गङ्गाजल का पान करने से क्या? व्रतों का पालन करने से क्या? तीर्थयात्रा करने से भी क्या प्रयोजन? यदि भावशुद्धि नहीं है। यह कवि का सीधे-सीधे कर्मकाण्ड पर प्रहार है। संस्कृत सर्जना परम्परा कपोल-कल्पना पर आश्रित नहीं है अपितु वर्तमान युग बोध का सूक्ष्मता से निरूपण करती है। डॉ. महाराजदीन पाण्डेय ( Dr.Maharajdeen pandey ) कटु यथार्थ का वर्णन करते हुए चाटुकारिता पर व्यंग्य करते हैं :-
पदं लीढ्वा पदं प्राप्ता:,
वञ्चनै: सम्पदं प्राप्ता:,
चाटुवचनै: पटूनामनुपदं ये सन्ततशरण्या:।।
अर्थात पैरों को चाट कर उच्च पद पर प्राप्त करते हैं। वञ्चाआें से संपत्ति को प्राप्त करते हैं, तथा चाटुकारिता सेयोग्यजनों के निरंतर शरणागत रहते हैं। समकालीन संस्कृत कविता ने हाशिये पर पड़े समाज का भी संज्ञान लिया है। संस्कृत कवि ने श्रमिकों, चरवाहों, हलवाहों और स्त्रियों की पीड़ा तथा संघर्ष को भी समानुभूति से चित्रित किया है। श्रीधरभास्कर वर्णेकर ( Shridhar Bhaskar varnekar ) ने श्रमगीता में श्रमिक को प्रतिष्ठित करते हुए उसके श्रम-स्वेद को कवि-हस्ताक्षर से प्रणाम किया है : –
पदवाक्यमयी वाणी जिह्वयैव निगीर्यते।
सा तु श्रममयी वाणी सर्वैरङ् गैरुदीर्यते।।
पद-वाक्य से युक्त वाणी केवल जिह्वा से ही प्रकट होती है, परन्तु यह श्रममयी वाणी सभी अङें से प्रकट होती है। समकालीन संस्कृत कविता राजाओं अथवा सत्ता का वन्दन न करते हुए श्रमिकों का जीवन-संघर्ष और उनकी उपलब्धियों को रेखाङ्कित करती है। आचार्य ब्रह्मानन्द शर्मा ने ‘काव्यसत्यालोक’ नामक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ में मङ्गलाचरण करते हुए श्रम-देवता को नमस्कार किया है। केवल कविता में ही नहीं, अपितु काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ में श्रम तथा श्रमिक की प्रतिष्ठा का उपक्रम वस्तुत: सिद्धान्त तथा प्रयोग, दोनों के स्तर पर आधुनिक संस्कृत कवियों ने किया है। काव्य-प्रयोजन के स्तर पर भी संस्कृत कवि ने अभिनव चिन्तन किया है। आचार्य जगन्नाथ पाठक ( Acharya jagannath pathak ) ने कविता के प्रयोजन के विषय में कहा : –
न मनोरंजनमात्रं द्वित्राणामत्र तेऽस्ति कत्र्तव्यम्।
मत्कविते! वाणी स्यात् मूकजनानां विपन्नानाम्।।
केवल दो चार प्राणियों का मनोरंजन करना ही काव्य का प्रयोजन नहीं है अपितु हे मेरी कविता! तू मूक तथा आपत्तिग्रस्त प्राणियों की वाणी बन जा। कविता की विषयवस्तु के केन्द्र में कवि मूकजन, श्रमिक अथवा विपन्न प्राणियों को स्थापित करने के पक्षधर हैं। इसकी उपपत्ति वर्तमान में सर्वथा द्रष्टव्य है। यह बीसवीं तथा इक्कीसवीं शताब्दी के संस्कृत साहित्य की महती उपलब्धि है।स्त्री विमर्श में भी संस्कृत कवि की लेखनी उदात्त शिखरारूढ़ है। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ( Acharya Radhavallabha Tripathi ) की ‘नवा नायिका’ स्त्री की परिवर्तित एवं सार्थक भूमिका को रेखाङ्कित करती है :-
न सा निर्वर्णयति स्वकीयं रूपंदर्पणे/
चिरं/उपभोग-चिह्नानि
नखक्षतानि दन्तक्षतानि
विलोकयन्ती
उपनेत्रं धृत्वा/
दैनन्दिन्यामङ्कयति
रजकस्य देयम् दुग्धस्य देयम्।
पुरुष! वामा भवामि
त्वमपि पुरुषाभिजात्यमदं नष्ट्वादक्षिणो भव।
पुरुष! तव गृहिणी भवेयम
स्वीकुरु ममाप्यस्तित्वं गृहे।।
इस पूरी कविता में स्त्री के पक्ष से अनेक उपालम्भ उत्थापित किये गये हैं और इनके माध्यम से केवल पुरुष को ही नहीं, अपितु पूरे समाज को झकझोरने का कवि-प्रयास वस्तुत: श्लाघनीय है।
समकालीन संस्कृत साहित्य को समृद्ध करने वाली महिला लेखकों में पण्डिता क्षमाराव, डॉ. वेदकुमारी घई, डॉ. पुष्पा दीक्षित, डॉ. नलिनी शुक्ला तथा डॉ. लीना रस्तोगी सुप्रथित हैं। पण्डिता क्षमाराव ने गाँधी जी की वैचारिक सरणि से प्रभावित होकर सत्याग्रह-गीता की रचना की। अपने पिता की जीवनी का लेखन भी पद्य में किया। अनेक नये आयामों को अनावृत करने वाली समकालीन संस्कृत-कविता वर्तमान में स्वर्ण-युग का बोध कराती है। संस्कृत कवियों की लेखनी किसी कुबेर की क्रीतदासी नहीं है वह तो रामगिरि के आश्रमों में प्रवास रूपी तपस्या से शोधित हो चुकी है। जैसा कि डॉ. महाराजदीन पाण्डेय ( Dr.Maharajden pandey ) ने कहा है :-
नो कुबेरस्य कस्यापि वशवर्तिनी,
रामगिर्याश्रमे प्रोषिता लेखनी।।
-डॉ. सरोज कौशल, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर