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उदयपुर

यहां रंगों से नहीं बारुद से खेली जाती है होली, युद्ध का होता है आभास

मुगल से जीते थे युद्ध इसी खुशी में पिछले सवा 400 वर्षो से मनाते आ रहे शोर्य पर्व “जमराबीज”

उदयपुरMar 19, 2024 / 02:06 am

surendra rao

यहां रंगों से नहीं बारुद से खेली जाती है होली, युद्ध का होता है आभास

यहां रंगों से नहीं बारुद से खेली जाती है होली, युद्ध का होता है आभास

उमेश मेनारिया

उदयपुर .मेनार. देशभर में होली के पर्व के अलग-अलग रंगों के बीच जिला मुख्यालय से 45 किमी मेनार गांव जबरी गैर के नाम से अनूठी होली खेली जाती है। शौर्य- इतिहास की झलक दिखाने यहां धुलंडी के अगले दिन रंगों से नहीं बारूद से होली खेली जाती है। इसमें तलवारों और बंदूकों की आवाज से हूबहू युद्ध का दृश्य देखने को मिलता है । इस साल ये त्योहार 26 मार्च को मनाया जाएगा।
इस दिन पांच हांस ( मोहल्लों) से ओंकारेश्वर चौक पर मेनारवासी मेवाड़ी पोषाक में सजधज कर योद्धा की भांति ढोल की थाप पर कूच करते हुए हवाई फायर और तोपो से गोले दागते है। मध्य रात्रि को तलवारों की “जबरी गैर” भी खेली जाती है । क्षत्रिय योद्धाओं की भांति सजे धजे पुरूष ढोल की थाप पर एक हाथ में खांडा और दूसरे हाथ में तलवार लेकर गैर नृत्य करते है । पटाखों की गर्जना के बीच तलवारो की खनखनाहट यहां के माहौल को युद्ध का मैदान बना देती है । इसकी तैयारियां एक माह पूर्व से ही शुरू हो जाती है। यहां दीपावली से भी ज्यादा उत्साह जमरा बीज पर नजर आता है।—
सवा 400 साल से जमराबीज की चल रही परंपराइतिहासकार बताते है कि यहां के मेनारिया ब्राह्मणों ने मुग़लों से हुए युद्ध में विजय प्राप्त कर मुग़लों के थाने को यहां से खदेड़ दिया था। इसी खुशी में यहां के ग्रामीण पिछले सवा 400 वर्षो से जमराबीज त्योहार मनाने की परंपरा चली आ रही है । इस दिन गांव का मुख्य ओंकारेश्वर चौक सतरंगी रोशनी से सजाया जाता है दिनभर ओंकारेश्वर चौराहे पर रणबांकुरा ढोल बजता है। जमराबीज के दिन दोपहर एक बजे के क़रीब शाही लाल जाजम ओंकारेश्वर चबूतरे पर बिछाई जाती है जहां पर मेनारिया ब्राह्मण समाज के 52 गांवों के मौतबिरान पंच मेवाड़ की पारंपरिक वेशभूषा में शामिल होते है। फिर देर रात 9 बजे से मुख्य कार्यक्रम शुरू होता है जो भोर तक चलता है ।

मेनार के जमराबीज का गौरवशाली इतिहास

महाराणा प्रताप के अंतिम समय जब समूचे मेवाड़ में जगह-जगह मुगल सैनिक छावनियां व चौकियों में रहते हुए मेवाड़ को अपने अधीन करने की पुरजोर कोशिश की थी तब मेवाड़ महाराणा अमर सिंह प्रथम द्वारा हमेशा मुगलों को मुंह की खानी पड़ी। इसी समय मुगलों की एक मुख्य चौकी उठाला वल्लभगढ़ ( वर्तमान वल्लभनगर ) में स्थापित थी जिसकी एक उप चौकी मेनार गांव के यहां फ़ौज वड़ली स्थान थी । जब महाराणा प्रताप के निधन के बाद हरावल दस्ते की होड़ में सेनाएं कमजोर होने लग गई थी । इस दौरान मुग़ल सैनिकों के आतंक से जनता दुखी थी पुरे मेवाड़ की तरह यहाँ भी राजस्व की आवाजाही बंद और दरे को बंद कर दिया था । तभी इन मुग़लो ने मन्दिरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था । इसी दौरान मुग़लो के आतंक से त्रस्त होकर मेनार मेनारिया ब्राह्मणो ने योजनाबद्ध तरीके मुग़ल सेना को यहां से हटाने की योजना बनाई थी । ओंकारेश्वर चबूतरे पर निर्णय लेकर यहां के ग्रामीणों ने मुगलों की चौकी पर एक साथ हमला बोल दिया युद्ध में मुगलों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । जमरा भूमि में ये जबरी युद्ध हुआ था। यह दिन विक्रम संवत 1657 एवं सन 1600 ) चैत्र सुदी द्वितीया का था इस युद्ध में मेनारिया ब्राह्मण भी वीरगति को प्राप्त हुए थे।–
मुगलों से जीत की खुशी में मिली थी पदवी

मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह प्रथम ने मुग़लो पर विजय की ख़ुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल , सिर पर कलंकी धारण , ठाकुर की पदवी, मेवाड़ के 16 उमराव के साथ 17 वें उमराव की पदवी मेनार गांव को दी । वही आजादी तक मेनार गांव की 52 हज़ार बीघा जमीन पर किसी प्रकार का लगान नहीं वसूला गया।

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