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वाराणसी

प्रियंका गांधी इफेक्टः पूर्वांचल की इन सीटों पर पड़ सकता है प्रभाव, प्रियंका रायबरेली से नहीं लड़ेंगी चुनाव

खास तौर पर वारणसी और उससे सटी संसदीय सीटों पर समीकरण में उलट-फेर का अंदेशा।

वाराणसीJan 25, 2019 / 01:13 pm

Ajay Chaturvedi

प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी


वाराणसी. लोकसभा चुनाव की घंटी लगभग बज चुकी है। सभी दलों ने धीरे-धीरे अपने पत्ते या तो खोल दिए हैं या खोलने शुरू कर दिए हैं। इसी कड़ी में यूपी की सियासत से 29 साल से हाशिये पर चल रही कांग्रेस ने भी इस बार अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है। पिछले एक दशक से जिस नेता को कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में लाने की मांग हो रही थी वह कांग्रेस ने पूरी कर दी है। सपा और बसपा के बीच गठबंधन हो चुका है उसमें रालोद भी शामिल है। एक और गठबंधन की चर्चा जोरों पर है और वह है अपना दल (कृष्णा पटेल) और आम आदमी पार्टी का। उधर भाजपा के साथ अपना दल (एस) के साथ सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी है। लेकिन सुभासपा की स्थिति अभी डावांडोल है। अपेक्षित सीटों के न मिलने पर भजपा का दामन छोड़ भी सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस ने जो तुरुप का पत्ता चला है उसके दूरगामी परिणाम की आस लगाई जाने लगी है राजनीतिक गलियारों में। प्रियंका इफेक्ट के रूप में पीएम मोदी और मोदी-शाह कंबिनेशन के तहत 2014 का चुनाव जीतने वाली सीटें ज्यादा प्रभावित होंगी।
प्रियंका की राजनीतिक सीमा पूर्वांचल, अमेठी से हो सकती हैं दावेदार

वाराणसी के राजनीतिक गलियरों में जो सियासी चर्चा जोरों पर है उसके अनुसार प्रियंका के बतौर पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रभारी राजनीति में कदम रखने के बाद एक चीज तो तय है कि उनकी सियासत की परिधि पूर्वी उत्तर प्रदेश होगी। यानी यह एक तरह से तय है कि प्रियंका गांधी गांधी परिवार की परंपरागत सीट रायबरेली से उम्मीदवार नहीं होंगी। अब अगर बात करें कि रायबरेली नहीं तो और कहां, तो इसके जवाब में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा हिसाब से प्रियंका अमेठी, फूलपुर या वाराणसी से चुनावी मैदान में उतर सकती हैं। ये तीनों ही सीटें पूर्वांचल में आती हैं। प्रियंका को अपने पिता की अमेठी सीट से उतारने के पीछे की राजनीति का बड़ा पहलू होगा प्रियंका और स्मृति ईरानी के बीच मुकाबला। हालांकि स्मृति ईरानी को 2014 के लहर में भी मोदी करिश्मा चुनाव नहीं जिता पाया था। तब अमेठी से चुनाव भले राहुल गांधी जीते थे लेकिन हकीकत में जमीनी लड़ाई प्रियंका और स्मृति के बीच ही हुआ था, इस बार अगर दोनों ही प्रत्याशी के रूप में आमने-सामने होते हैं तो लड़ाई और रोचक होगी। हां! इस लड़ाई में एक बात और भी महत्वपूर्ण होगी कि इस बार सपा-बसपा ने भले ही अभी कांग्रेस को अपने गठबंधन में जगह नहीं दी है लेकिन अमेठी सीट पर उनका कोई प्रत्याशी नहीं होगा इसकी घोषणा भी कर दी है। यानी अमेठी में सीधी लड़ाई में स्मृति और प्रियंका ही होंगी। यानी सवर्ण मतों के साथ ओबीसी और दलित वोटबैंक का सहारा भी मिलेगा। सहयोगी दलों सपा-बसपा से।
वाराणसी दूसरी पसंदीदा सीट

इसके बाद कांग्रेस या समूचे विपक्ष के निशाने वाली यूपी ही नहीं देश की वीवीआईपी सीट है वाराणसी। बनारस के कांग्रेसी प्रियंका के आधिकारिक रूप से राजनीति में कदम रखते ही उन्हें वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित कर चुके हैं। 2014 के चुनाव में मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने और 75614 वोट के साथ तीसरे नंबर पर रहने वाले कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय ने तो सबसे पहले यह बयान दिया है कि वो जल्द ही इस मसले पर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी से मिल कर प्रियंका गांधी को बनारस से प्रत्याशी बनाने के लिए अनुरोध करेंगे। यानी पूरी कांग्रेस को प्रियंका के रूप में बनारस की राजनीति में बडी उम्मीद दिखाई दे रही है। वैसे भी साझा विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में भी बनारस सीट पर कांग्रेस का ही दावा बनता है क्योंकि 2014 के चुनाव में जब नरेंद्र मोदी की लहर में पूरा विपक्ष उड़ गया था तब भी कांग्रेस 75614 वोट के साथ तीसरे नंबर पर थी। कांग्रेस से ऊपर 209238 वोट के साथ आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल थे, जबकि 581022 वोट के साथ भाजपा के नरेंद्र दमोदार दास मोदी विजयी घोषित हुए थे। तब बसपा के विजय प्रकाश जायसवाल 60579 वोट के साथ चौथे और 45291 के साथ सपा के कैलाश चौरसिया पांचवें नंबर पर थे। यानी यहां से कांग्रेस का दावा साझा विपक्ष के रूप में ज्यादा मजबूत है। अगर आमआदमी पार्टी से अरविंद केजरीवाल मैदान में दोबारा नहीं आते जो नहीं होने वाला क्योंकि वह खुद और उनके प्रवक्ता संजय सिंह पहले ही कह चुके हैं कि केजरीवाल दिल्ली की कुर्सी पर ही रहेंगे वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। वैसे संजय सिंह बार-बार साझा उम्मीदवार की बात करते रहे हैं। यह दीगर है कि प्रियंका के राजनीति में आने के पहले तक आम आदमी पार्टी बिहारी बाबू के रूप में शत्रुघ्न सिन्हा को प्रोजेक्ट करती नजर आ रही थी लेकिन पिछले दिनों बीहारी बाबू खुद कह चुके हैं कि सिचुएशन चाहे जो हो पर लोकेशन वही (पटना) ही रहेगी। ऐसे में प्रियंका के बनारस से चुनाव लड़ने पर पूरा विपक्ष कांग्रेस को समर्थन दे सकता है।
परनाना की परंपरागत सीट फूलपुर से हो सकती हैं प्रत्याशी

तीसरी सीट है फूलपुर जो कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है। देश के पहले प्रधानमंत्री और आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में इस सीट से जवाहर लाल नेहरू ही मैदान में उतरे थे। ऐसे में कांग्रेस पुनः इस सीट से प्रियंका को मौका मैदान में उतार सकती है। वैसे फिलहाल यह सीट उपचुनाव के बाद से समाजवादी पार्टी के पास है। लेकिन संभव है कि प्रियंका गांधी के नाम पर सपा और कांग्रेस में सहमति बन सकती है।
पूर्वांचल की इन सीटों पर पड़ सकता है प्रभाव

राजनीतिक गलियारों में चल रही चर्चाओं के मुताबिक अगर बात करें कि प्रियंका का प्रभाव पूर्वांचल की किन-किन सीटों पर ज्यादा पड़ेगा तो उस लिहाज से तीन सीटें प्रमुख है और वो सभी बनारस की सीमा से सटी सीटे हैं और तीनों पर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नजदीकी ही सांसद हैं। इसमें हैं गाजीपुर, जहां से रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा सांसद हैं तो कभी बनारस का हिस्सा रही चंदौली सीट पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ महेंद्र नाथ पांडेय सांसद है और तीसरी सीट है मिर्जापुर जहां से अपना दल (एस) से स्वास्थ्य राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल सांसद हैं।
प्रियंका के निशाने पर प्राथमिकता में वाराणसी सीट

कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी के पूर्वाचंल की कमान संभालने के बाद उनका पहला निशाना पीएम मोदी की सीट होगी। हालांकि वाराणसी संसदीय सीट पर पिछले सात लोक सभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो केवल एक बार 2004 में ही भाजपा को यहां से मात मिली थी तब कांग्रेस प्रत्याशी डॉ राजेश मिश्र ने बीजेपी के शंकर प्रसाद जायसवाल को पराजित किया था। उसके बाद यानी 2009 में भाजपा के डॉ मुरली मनोहर जोशी और कौमी एकता दल के मोख्तार अंसारी में कांटे की टक्कर हुई थी और डॉ जोशी ने मैदान फतह किया था। फिर 2014 में तो खुद नरेंद्र मोदी यहां से मैदान में थे जिन्होंने रिकार्डतोड जीत हासिल की थी। ऐसे में प्रियंका के लिए बीजेपी के इस अभेद्य किले में सेंधमारी बडी चुनौती होगी। हालांकि पूरी कांग्रेस प्रियंका के नाम पर एक हो सकती है जिसमें पंडित कमलापति त्रिपाठी का परिवार भी है जिसका बनारस में काफी हद तक अब भी दबदबा है। ऐसे में लड़ाई रोचक होने की उम्मीद लगाई जा रही है।
अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद 2014 में उनकी परंपरागत सीट लखनऊ से राजनाथ सिंह चुनावी मैदान में उतरे। सिंह के इस सीट से उतरने को राजनीतिक जानकारों ने उनके अटल बिहारी वाजपेयी के उदारवादी दक्षिणपंथी नेता की विरासत के वारिस होने के दावे के तौर पर देखा। राजनाथ सिंह इस सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुँचे और मोदी कैबिनेट में नंबर दो के मंत्री के तौर पर देश के गृह मंत्री बने।
गाजीपुर में सपा-बसपा को गठबंधन को मिल सकता है प्रियंका इफेक्ट का फायदा
जहां तक बात गाजीपुर संसदीय सीट की है तो यहां से फिलहाल मनोज सिन्हा एमपी हैं जिन्हें पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का करीबी माना जाता है। कहा तो यह भी गया था कि मोदी और शाह तो उन्हें 2017 यूपी की बागडोर सौंपने वाले थे लेकिन संघ के दबाव के चलते अंतिम समय में निर्णय बदला और योगी आदित्यनाथ के हाथों चली गई यूपी की कमान। गाजीपुर सीट पर सिन्हा का ट्रैक रिकॉर्ड 50-50 का रहा है। वह इस सीट से 1996, 1999 और 2014 में चुनाव जीते हैं। लेकिन इसी सीट पर साल 2004 और 2009 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी को समाजवादी पार्टी ने अकेले दम पर हरा दिया था। प्रियंका को महासचिव बनाए जाने के बाद राहुल गांधी जब मीडिया से मुखातिब हुए तो उन्होंने समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को समानधारा विचारधारा वाली पार्टी बताया। ऐसे में प्रियंका फैक्टर यहां भी भारी पड़ सकता है। गाजीपुर में सपा और बसपा के जनाधार को प्रियंका के बीजेपी विरोधी प्रचार का सपोर्ट मिल गया तो सिन्हा की सीट फिसलते देर नहीं लगेगी।
चंदौली सीट पर पड़ेगा ज्यादा प्रभाव

जहां तक चंदौली सीट की बात है तो महेंद्र नाथ पांडेय इस समय यूपी बीजेपी के अध्यक्ष हैं। इससे पहले वह नरेंद्र मोदी सरकार में मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री रहे। महेंद्र नाथ पांडेय वाराणसी की पड़ोसी संसदीय सीट चंदौली से सांसद हैं। चंदौली पहले वाराणसी जिले का हिस्सा था। पांडेय को भी नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का करीबी माना जाता है। प्रियंका के आने से लोक सभा 2019 में इस सीट पर असर पड़ना तय है। वाराणसी की तरह चंदौली का जातिगत समीकरण बीजेपी की तरफ झुका हुआ नहीं है। 2014 में बीजेपी ने 16 साल बाद चंदौली सीट पर मोदी लहर में जीत हासिल की थी। पांडेय से पहले आखिरी बार 1998 में बीजेपी के आनंद रतन मौर्य ने इस सीट पर जीत हासिल की थी। 1999 में समाजवादी पार्टी के जवाहरलाल जायसवाल ने लगातार तीन बार से जीत रहे मौर्य को हराकर यह सीट जीत ली थी। उसके बाद बीजेपी को जीत के लिए डेढ़ दशक तक इंतजार करना पड़ा। वैसे चंदौली को कांग्रेस के गढ के रूप में भी माना जाता है। पंडित कमलापित त्रिपाठी का यह क्षेत्र रहा है। ऐसे में यहां भी प्रियंका इफेक्ट प्रभावी हो तो आश्चर्य नहीं होगा।
मिर्जापुर सीट भी पड़ सकती है खतरे में

अब बात करते हैं मिर्जापुर सीट की जहां से अनुप्रिया पटेल, अपना दल (एस) सांसद हैं। बता दें कि 2014 में मिर्जापुर सीट से अपनादल ने भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लडा था जिसमें उसे जीत मिली। यानी जो काम अनुप्रिया के पिता और अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल नहीं कर सके वो उनकी बेटी ने कर दिखाया था। मिर्जापुर सीट पर 1998 के आम चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार वीरेंद्र सिंह को जीत मिली थी। 1999 में समाजवादी पार्टी के टिकट फूलन देवी ने इस सीट से जीत हासिल की थी। लगातार पांच चुनावों में मिर्जापुर सीट हारने के बाद 2014 में बीजेपी गठबंधन को इस सीट से जीत मिली। इस सीट के जातिगत समीकरण और सपा और बसपा के गठबंधन को देखते हुए बीजेपी गठबंधन के हाथ से इसका फिसलना लगभत तय माना जा रहा है।
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