ये सिर्फ देखती हैं चुपचाप
और फिर भेदती हैं अंदर तक हमारी जमी जमाई जिंदगियों के सुकून को
ये आंखें तमाम अनाथ सीरियाई बच्चों की आंखों से मेल खाती हैं
पेशावरी बच्चों की भून दी गई आंखें भी तो ऐसी ही रही होंगी
क्या कालाहांडी के अकाल से मरते बच्चों की आंखों से कोई अलग हैं ये आंखें
और फिर भेदती हैं अंदर तक हमारी जमी जमाई जिंदगियों के सुकून को
ये आंखें तमाम अनाथ सीरियाई बच्चों की आंखों से मेल खाती हैं
पेशावरी बच्चों की भून दी गई आंखें भी तो ऐसी ही रही होंगी
क्या कालाहांडी के अकाल से मरते बच्चों की आंखों से कोई अलग हैं ये आंखें
इन आंखों के असर से कैसे बचूंगी मैं
इनकी धार से चिर गए अपने कलेजे को कैसे सियूंगी मैं
बचपन को निगल जाने को बेताब जमाने के आगे
सरेंडर से पहले की फड़फड़ाहट से भरे गोल गोल चक्कर काटते पंछी जैसी या फिर
अंधेरों में यात्रा करते करते अनगिनत शापित आकाशीय पिंडों की तरह
किसी बिग बैंग के इंतजार में किस पृथ्वी की परिक्रमा करती हैं ये आंखें
इनकी धार से चिर गए अपने कलेजे को कैसे सियूंगी मैं
बचपन को निगल जाने को बेताब जमाने के आगे
सरेंडर से पहले की फड़फड़ाहट से भरे गोल गोल चक्कर काटते पंछी जैसी या फिर
अंधेरों में यात्रा करते करते अनगिनत शापित आकाशीय पिंडों की तरह
किसी बिग बैंग के इंतजार में किस पृथ्वी की परिक्रमा करती हैं ये आंखें
मुझे इन आंखों से डर लगता है
मुझे उस विस्फोट की कल्पित आवाजों से डर लगता है
मुझे आकाश में टूटकर बेआवाज़ बिखर रहे तारों की आखिरी चमक से डर लगता है
मुझे कई सौ प्रकाश वर्ष पहले मर चुके तारों के हाहाकार से डर लगता है
देखो हमारे सिर पर मर चुके अनंत अनंत तारे कैसे टिमटिमा रहे हैं
मुझे इस भ्रम भरी दिपदिपाहट से डर लगता है
मुझे नींद में भी इन आंखों से डर लगता है
मुझे उस विस्फोट की कल्पित आवाजों से डर लगता है
मुझे आकाश में टूटकर बेआवाज़ बिखर रहे तारों की आखिरी चमक से डर लगता है
मुझे कई सौ प्रकाश वर्ष पहले मर चुके तारों के हाहाकार से डर लगता है
देखो हमारे सिर पर मर चुके अनंत अनंत तारे कैसे टिमटिमा रहे हैं
मुझे इस भ्रम भरी दिपदिपाहट से डर लगता है
मुझे नींद में भी इन आंखों से डर लगता है
– नीलिमा चौहान
(ब्लॉग से साभार)
(ब्लॉग से साभार)