जब तुम्हारे पिता ने उनसे आगमन का कारण पूछा तो नारदजी बोले- ‘हे गिरिराज! मुझे भगवान विष्णु ने आपके पास भेजा है। वे आपकी कन्या पार्वती से विवाह करना चाहते हैं। ये सुनकार गिरिराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है कि इस संसार के पालनकर्ता स्वयं मेरी बेटी से विवाह करना चाहते हैं। उन्होंने फौरन इस विवाह के लिए स्वीकृति दे दी।
शिवजी पार्वती जी से कहते हैं, कि इसके बाद नारद जी ने ये शुभ समाचार भगवान विष्णु को सुनाया। लेकिन जब तुम्हे इस बात की खबर हुई तो तुम बहुत दुखी और नाराज हुईं क्योंकि तुमने तो मुझे पहले ही अपना पति मान लिया था। अपने मन को हल्का करने के लिए तुमने ये बात अपनी सहेली को बताई। इसके बाद तुम्हारी सहेली ने तुम्हें एक घनघोर वन में शिव को प्राप्त करने के लिए साधना करने की बात कही। तुमने बिल्कुल ऐसा ही किया। जब गिरिराज को तुम्हारे अचानक गुम होने की सूचना मिली तो उन्होंने तुम्हारी खोज में धरती-पाताल एक करवा दिए लेकिन तुम नहीं मिलीं।
तुम तो वन में एक गुफा के अंदर मेरी आराधना में लीन थीं। वो दिन श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया का दिन था जब तुमने रेत से मेरी शिवलिंग बनाई और मेरी आराधना की। उसके बाद प्रसन्न होकर मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर मनोकामना को पूर्ण किया। इसके बाद तुमने अपने पिता के समक्ष एक शर्त रख दी कि मैं आपके साथ तभी चलूंगी जब आप मेरा विवाह महादेव के साथ करेंगे। हारकर पर्वतराज को तुम्हारी हठ माननी पड़ी और वे तुम्हें घर वापस ले गए। कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ हमारा विवाह किया।
भगवान् शिव ने कहा, ‘हे पार्वती! श्रावण शुक्ल तृतीया हमारे मिलन का दिन है। इस दिन तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। आज के बाद जो भी स्त्री इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करेगी उसे मैं मन वांछित फल दूंगा। उस स्त्री को तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।