22 अगस्त 1942 को हेड पोस्ट ऑफिस के सामने वाली पेट्रोल टंकी फूंकने में आंदोलनकारी असफल हो गए लेकिन हार नहीं मानी। दूसरे ही दिन 23 अगस्त को पुलिस लाइन में ठहरने वाली फौज के खेमे में आग लगाए जाने की रणनीति बन गई। उस समय वहां इतनी सतर्कता थी कि उस कार्य को करना जानबूझ कर काल के गाल में अपने को ढकेलना था, इसलिए पुलिस कप्तान का दफ्तर फूंकने की बात सोची गई लेकिन वहां जाने पर जबर्दस्त पहरे के कारण उसमें भी सफलता हासिल नहीं हुई। जिले भर में स्वाधीनता दिवस मनाने का कार्यक्रम भेजा जा चुका था जिसके विषय में इस बात की चिंता थी कि नगर में क्या किया जाए। बावजूद इसके कुछ करना अनिवार्य था। इसलिए रात आठ बजे से पूर्व ही शाम को ही पेट्रोल टंकी फूंकने में असफल विद्यार्थियों की टोली पद्मनाथ सिंह के नेतृत्व में कप्तान के दफ्तर पहुंची। दफ्तर का ताला तोड़वाना और उसमें आग लगाना संभव नहीं था। इसलिए यह आहट होने के बाद कि पहरे पर रहने वाले सिपाही कलेक्ट्री कचहरी के पूरब वाले बरगद के नीचे गाना गा रहे हैं। चटपट कप्तान के दफ्तर के पश्चिम वाले मैदान में खड़े किए खेमों को ही फूंकने की तैयारी हुई। शायद वे खेमे अफसरों के दौरे वाले थे, जो सुखाने के लिए बाहर खड़े किए गए थे। उनकी संख्या लगभग 15 की थी। टोली का नेतृत्व करने वाला इधर-उधर सड़क पर आने-जाने लगा जिससे कि कोई यह न भांप सके कि कौन कहां जाता है। इसी बीच टोली का एक विद्यार्थी अपनी स्प्रिट की बोतल लेकर खेमे में जा घुसा। उसने स्प्रिट छिड़ककर दियासलाई (माचिस) जलाई लेकिन खेमे नहीं जले। असफल होकर वह चला आया। यह जानकर दूसरा विद्यार्थी शहर से मिट्टी तेल लाने के लिए दौड़ाया गया, जो 15 मिनट के अंदर ही आ गया। उसके बाद तीन खेमों में आग लगा दी गई। सफलता की धुन में विद्यार्थी सभी खेमों का फूंकना चाहते थे लेकिन पूरब की तरफ हो-हल्ला सुनाई दिया। इससे लोग मेहता पार्क होकर बांध के पश्चिम से नीचे उतर गए। टोली के नेता वहीं से जज की विदाई समारोह में शामिल होने के लिए निकल गए। इस कांड की सफलता के बाद नगर व कचहरियों में पुलिस का इतना पहरा बढ़ा दिया गया कि अब दिन डूबने के बाद कहीं किसी का बिना कारण आना-जाना संभव नहीं था। लेकिन क्रांतिकारियों ने हार नहीं मानी और आधी रात को अपने मंसूबे में सफल हो गए।