भाईचारा काबिले तारीफ:- जातियां थी लेकिन जात पांत नहीं थी, हर तबके में मेलजोल और भाईचारा उच्च स्तर का था, राजपूत, ब्राह्मण, माहेश्वरी, मेघवाल, भील सभी जातियों में एकजुटता व सहयोग के भाव थे। पूरा गांव एकत्र सामूहिक निणज़्य के साथ एक दूसरे के सहयोग से काफिले के रूप में चलकर इधर की मंजिल पर पहुंचे।
विस्थापन का शब्द सुनकर ही कलेजा कांप जाता है, अपने वतन और जड़ जमीन से उखड़कर सैकड़ों मील दूर अनजाने मुल्क में स्थापित होने की चाहत में हुआ विस्थापन रूह कंपा देने वाला था, लेकिन उसके पीछे के सुकून की चाहत में कदम बढ़ते ही गए। हजारों परिवार पाक से विस्थापित होकर भारत के सरहदी इलाकों में आकर बस गए।
पाक से आया बुलावा:- शिमला समझौते के बाद अमरकोट के राणा चन्दनसिंह भुट्टो सरकार के आग्रह पर उनके दो मुस्लिम मंत्रियों के साथ भारत आकर विस्थापितों को वापस चलने का आग्रह करने यहां आए। हालांकि कुछ परिवारों को छोड़ा किसी भी पाक विस्थापित ने वापस जाना मुनासिब नहीं समझा।
तरूणराय कागा पाक में प्राइवेट कम्पाउडर के पद पर डिस्पेंसरी में नौकरी करते थे, बताते हैं कि विस्थापितों के लिए जिले के सरहदी इलाके में 24 केम्प लगाए गए। उस दौर में इस इलाके का कोई रहवासी सरकारी सेवा में नहीं था, पहली बार पाक विस्थापितों मेंसे ही युवक सरकारी सेवाओं नौकरी पर लगे। विस्थापितों मेंसे लक्ष्मणसिंह सोढा 1980 में चौहटन के पहले प्रधान बने, 1995 में तरूणराय कागा की पत्नि मिश्रीदेवी कागा दूसरी विस्थापित प्रधान बनी, वहीं स्वयं तरूणराय कागा 2013 में चौहटन के पहले विधायक बने।