भोपाल

भारतीय, ब्रिटिश और अफगानी तहजीब का मेल है भोपाली पोशाक

-एमलबी कॉलेज की छात्रा ने भोपाली पोशाक के इतिहास पर पर रिसर्च कर जाने कई रोचक तथ्य

भोपालJun 23, 2018 / 08:20 am

manish kushwah

भारतीय, ब्रिटिश और अफगानी तहजीब का मेल है भोपाली पोशाक

भोपाल. नवाबी तहजीब और समृद्ध धरोहर के लिए खास पहचान बनाने वाले भोपाल की पारंपरिक पोशाक के कद्रदानों की फेहरिस्त काफी लंबी है, पर इस पारंपरिक भोपाली पोशाक के इतिहास और इससे जुड़े रोचक तथ्यों की जानकारी कम ही लोगों को होगी। पुरुषों के लिए शेरवानी और अंगरखा तो महिलाओं के लिए तुर्की कुर्ती दुपट्टा और खास पायजामा आज भी पसंदीदा लिबासों में शामिल है। भोपाली पोशाक पर रिसर्च करने वाली एमएलबी कॉलेज की छात्रा खुशनूर लईक अहमद ने ढाई महीने की मशक्कत के बाद अटायर्स ऑफ भोपाल स्टेट टॉपिक पर मिनी थीसिस तैयार की है।

1911 में तैयार किया गया था जोड़ा
खुशनूर के मुताबिक भोपाली पोशाक पर रिसर्च के दौरान उन्हें पता चला कि इसे वर्ष 1911 में तैयार किया गया था। रिसर्च में नवाब औबेदुल्लाह खान की पोती नीलोफर रशीदउल जफर खान के अलावा पुरातत्व विभाग, राज्य संग्राहालय का भी काफी सहयोग मिला। नीलोफर ने बताया कि तुर्की कुर्ती और दुपट्टा नवाबी दौर की पहली पोशाक है, जिसे आज भी खास मौकों पर महिलाएं पहनती हैं। इसे ही भोपाली जोड़ा कहा जाता है। यह जोड़ा सुल्तानजहां बेगम के लिए तैयार किया गया था।

तीन देशों का मेल है भोपाली पोशाक
खुशनूर के मुताबिक उन्होंने नवाबी पहनावे को रिसर्च का विषय इसलिए चुना क्योंकि इस पर किसी ने अभी तक काम नहीं किया था, जबकि हम इसके बारे में बचपन से सुनते और देखते आ रहे हैं। अटायर्स ऑफ भोपाल में उन्होंने वर्ष 1708 से 1949 के बीच पोशाकों एवं ज्वेलरी में आए तब्दीलियों के इतिहास को भी जाना।

पहले नवाब दोस्त मोहम्मद खान से लेकर आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान के समय के लिबास को देखकर पता चलता है कि भोपाली पहनावा अफगानी, ब्रिटिश एवं इंडियन कल्चर का मेल है। अफगानिस्तान से आया अंगरखा और शेरवानी आज भी युवाओं के बीच खासी लोकप्रिय है।

घरारा का क्रेज बरकारर
रिसर्च में सामने आया कि बेगम साजिदा जिस शहर या देश जाती थीं तो वहां से कुछ न कुछ नया लेकर आती थीं। उन दिनों लखनऊ में घरारा ज्यादा पहना जाता था, जिसमें सोने-चांदी के तारों के साथ नगों को जड़ा जाता था। इस घरारा को बेगम साजिदा ने निकाह में पहना था। तभी से इसका चलन भोपाल में बढ़ गया जो आज भी कायम है।

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