भोपाल। मप्र में हुए उपचुनाव के नतीजे सामने हैं। नेपानगर विधानसभा सीट से मंजू दादू जीत गई हैं, तो वहीं शहडोल लोकसभा सीट से हिमाद्री सिंह को हार मिली है। आप सोच रहे होंगे कि एक ओर जीते हुए प्रत्याशी का जिक्र किया जा रहा है, तो दूसरी ओर हारे हुए प्रत्याशी का क्यों? तो चलिए हम आपको बता दें कि इन दोनों प्रत्याशियों का जिक्र यहां इसलिए किया गया है, क्योंकि दोनों की ही ये पहली राजनीतिक परीक्षा थी। दोनों में बहुत सी समानताएं भी हैं, हालांकि चुनाव नतीजे अलग-अलग आए हैं।
नेपानगर से मंजू दादू 42 हजार से ज्यादा वोटों से जीती हैं तो वहीं हिमाद्री सिंह शहडोल सीट से इससे भी ज्यादा वोटों से हार गईं। आखिर क्या कारण रहा जो कई मामलों में समानताएं रखने वाली दो प्रत्याशियों के चुनाव नतीजों में इतना अंतर देखने को मिला। इस पर एक नजर डालते हैं।
मंजू दादू: इनके पास है 42 हजार वोटों की जीत और पिता का नाम
नेपानगर विधानसभा उपचुनाव के लिए नामांकन जमा करने की प्रक्रिया के दूसरे दिन जब मंजू दादू अपना नामांकन रिटर्निंग ऑफिसर को दाखिल कर बाहर निकलीं तो किसी ने पूछा, नामांकन की पावती कहां है। 7 मिनट तक सीएम और बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष के इंतजार करने के बाद उन्हें पावती मिली।
अपनी पहली आम सभा में सिर्फ पिता के कार्यों को आगे बढ़ाऊंगी तक सिमटने वाली मंजू जाहिर तौर पर जनता की सहानुभूति पा चुकी थीं। इन बातों से ये साफ हो जाता है कि मंजू अभी राजनीति के अनजान रास्ते पर सम्भलते हुए चल पड़ी हैं।
फिर भी इतनी बड़ी जीत हासिल करना और कुछ ही महीनों में सिविल सर्विसेज के सपने देखते देखते प्रदेश की विधानसभा में जा कर बैठ जाना, निश्चित तौर पर मंजू के लिए किसी सपने से कम नहीं है। मंजू अपनी इन चुनौतियों पर किस तरह खरी उतरेंगी ये तो बाद की बात है, फिलहाल यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि आखिर मंजू के जीत के पीछे वो क्या बड़े कारण रहे जो हिमाद्री सिंह को नहीं मिल पाए।
पार्टी का सहयोग और सिम्पैथी
मंजू दादू की जीत के पीछे सबसे बड़ा फैक्टर था, लोगों की सहानुभूति और पार्टी का सहयोग। पिता राजेन्द्र दादू की असामयिक मृत्यु के बाद अपने भाई बहनों में दूसरे नंबर की मंजू को पिता की राजनीतिक विरासत मां ने सौंपी तो बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने हाथ पकड़कर राजनीति की पगडंडी पर आगे बढ़ा दिया। मंजू की राजनीति के इस छोटे से कदम में उन्हें साथ मिला जनता की सहानुभूति का और देखते ही देखते वो फिनशिंग लाइन के पार जाकर खड़ी हो गईं।
वैसे कांग्रेस की हार के पीछे पार्टी की अंतर्कलह और बूथ लेवल तक की सक्रियता का अभाव बड़ा कारण माना जा रहा है लेकिन बीजेपी और मंजू दादू की जीत के पीछे बाकी कारक भी अनदेखे नहीं किए जा सकते।
हिमाद्री सिंह: काम नहीं आया रुतबा, नहीं चली पैठ
दूसरी ओर शहडोल लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की हिमाद्री सिंह, भाजपा के ज्ञानसिंह से 58 हजार से ज्यादा वोटों से हार गईं। हिमाद्री भी राजनीतिगत रूप से ताकतवर परिवार से आती हैं। यही नहीं वे गांधी परिवार की भी काफी करीबी मानी जाती हैं। लेकिन चुनाव के नतीजों में ऐसा कोई भी फैक्टर काम करता नजर नहीं आया। हिमाद्री 58 हजार से ज्यादा वोटों से हार गईं।
फैमिली बैकग्राउंड पर नजर डालें तो हिमाद्री सिंह के पिता दलवीर सिंह पूर्व पीएम राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर थे, वहीं मां राजेश नंदनी सिंह भी शहडोल से एमपी रह चुकी । हिमाद्री के परिवार का शहडोल संसदीय क्षेत्र में एक अलग ही रुतबा और पैठ है। कांग्रेस ने इस फैक्टर को भुनाने को पूरी कोशिश की, पार्टी को ये दांव उलटा पड़ गया।
इसी साल जून में पूर्व सांसद और मध्य प्रदेश के बड़े नेताओं में शुमार रहीं राजेश नन्दिनी सिंह के निधन के बाद उनकी बेटी को चुनावी मैदान में उतारने के पीछे कांग्रेस का फंडा यही था कि सिम्पैथी वोट बैंक से कांग्रेस जीत जाएगी। हिमाद्री सिंह के लिए भी राजनीति की स्लेट अभी खाली ही है।
ऐसा नहीं था कि हिमाद्री सिंह की हार के पीछे सिर्फ एक यही कारण है। ये पहलू मंजू दादू के साथ भी जुड़ा हुआ था। लेकिन मंजू दादू को संगठन का भरपूर सहयोग मिला, वहीं हिमाद्री सिंह संगठन की एकजुटता से वंचित रह गईं। सिम्पैथी वोट हिमाद्री के पाले में भी गए, लेकिन नेपानगर जैसा जादू यहां नहीं चल पाया।
शहडोल संसदीय सीट के लिए बीजेपी ने चुनावी मैदान में मध्यप्रदेश सरकार के अनसुचित जाति जनजाति कल्याण मंत्री ज्ञान सिंह को उतारा था, जो पहले 1996 में 11वीं और 1998 में 12वीं लोकसभा के शहडोल संसदीय सीट से भी चुनाव जीत चुके थे।
एक जून को सांसद दलपत सिंह परस्ते का ब्रेन हेमरेज के कारण निधन हो जाने के बाद से शहडोल सीट खाली हो गई थी, जिस पर 19 नवंबर को चुनाव हुआ था, जिसमें राजनीति की मजबूत पकड़ रखने वाले ज्ञानसिंह ने बड़े अंतर के साथ जीत हासिल कर ली।