script“हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं” | Shri Ram-Sita Vivah, Seven words of bride and groom and their meaning | Patrika News
भोपाल

“हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं”

परम्परा : प्राचीन संस्कृति ने विवाह में चयन करने का अधिकार कन्या पक्ष को पहले और वरपक्ष को बाद में दिया है।- वर-वधु के सात वचन और इनका अर्थ

भोपालSep 24, 2022 / 02:09 pm

दीपेश तिवारी

ram_janki_vivah_fere.jpg

विप्र, धेनु, सुर और संतों के हित के लिए मानव रूप में अवतरित हुए ईश्वर मानव द्वारा रची गयी सबसे पवित्र परम्परा का हिस्सा बन रहे थे। वह परम्परा, जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है।

राम और सिया तो आये ही थे एक साथ अपनी लीला दिखा कर आने वाले युग को जीवन जीने की कला सिखाने, उनके विवाह में निर्णय का अधिकार किसी अन्य मनुष्य के पास क्या ही होता! पर लोक के अपने नियम हैं, अपनी व्यवस्था है। ईश्वर भी जब लोक का हिस्सा बनते हैं तो उसके नियमों को स्वीकार करते हैं।

विवाह की विधियों का प्रारम्भ बरच्छा से होता है, जब कन्या का पिता सुयोग्य वर का चयन करता और विवाह तय करता है। यहां इस विधि की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि राम चारों भाइयों को देख कर मुग्ध हुए समस्त जनकपुर ने मान लिया था, वर अच्छा है।

बारात राजा जनक के महल पहुंची, और द्वारपूजा के समय झरोखे से चारों को देख कर अंतः पुर की स्त्रियों ने औपचारिक रूप से स्वीकृति दी, हमें वर पसन्द हैं, वे विवाह की विधियों के लिए महल में प्रवेश कर सकते हैं।

Must Read- विवाह से पहले सीता ने क्यों कह दिया था अब आ गए ‘तपस्या के दिन’

 

 

द्वारपूजा की चौकी के पास खड़े मिथिला के सम्भ्रांत वर्ग ने दूल्हों पर अक्षत बरसा कर आशीष दिया। दूल्हों पर बरसते पुष्प और अक्षत विवाह की सामाजिक स्वीकृति का प्रमाण होते हैं। जैसे सबके उठे हुए हाथ आशीष दे कर कह रहे हों, “आप अबसे हमारे जीवन का हिस्सा हैं पाहुन! हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं।”

वर का निरीक्षण हो गया, अब कन्या के निरीक्षण की बारी थी। संसार की इस सबसे प्राचीन संस्कृति ने विवाह में चयन करने का अधिकार कन्या पक्ष को पहले और वरपक्ष को बाद में दिया है। कन्या पक्ष वर से संतुष्ट था, अब वर पक्ष की बारी थी। बारात में आये रामकुल के समस्त बुजुर्ग, गुरु, पुरोहित आदि कन्या के आंगन में पहुंचे और मण्डप में बैठी कन्याओं को देख कर विवाह की स्वीकृति दी। सिया, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के सर पर आशीष का हाथ रख कर राजा दशरथ ने जैसे वचन दिया, “आज से मैं आप सब का पिता हुआ। जिस अधिकार से आप राजा जनक से कोई बात कह देती थीं, अपने ऊपर वही अधिकार अब मैं भी आपको देता हूँ।” कन्या निरिक्षण की परम्परा का यही सारांश है।

राम चारों भाई आंगन पहुंचे। पुरोहितों ने मंत्र पढ़े और स्त्रियों ने मङ्गल गीत गाया। दोनों वर-वधु के मङ्गल की प्रार्थनाएं थीं, एक शास्त्रीय और लौकिक… दोनों में किसी का मूल्य कम नहीं।

पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहने की पवित्र सौगन्ध! इस संसार में इससे अधिक सुन्दर भाव कोई हो सकता है क्या? नहीं! चारों वर अपनी अपनी वधुओं का हाथ पकड़ कर सौगन्ध लेते हैं– “मैं अपने समस्त धर्मकार्यों में तुम्हे संग रखूंगा। मेरे समस्त पुण्यों में तुम्हारा भी हिस्सा होगा।” जीवन के बाद स्वर्ग की इच्छा से किये गए पुण्यों में भी पत्नी को आधा हिस्सा देता है पुरुष! इससे अधिक मूल्यवान और क्या होगा?

दूसरा वचन! तुम्हारे माता-पिता आज से मेरे माता-पिता हुए। उनका उतना ही सम्मान करूंगा, जितना अपने माता-पिता का करता हूँ। तुम्हारे समस्त सम्बन्धों को आज से अपना सम्बन्ध मान कर निभाउंगा। पति यह वचन पत्नी की प्रतिष्ठा के लिए लेता है! ताकी उसका मान कम न हो, उसके सम्बन्धियों का मान कम न हो…
तीसरा फेरा! वर-वधु की प्रतिज्ञा है, “बीतते समय के साथ आयु मेरा सौंदर्य समाप्त कर देगी और तुम्हारा बल जाता रहेगा। फिर भी हम दोनों एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहेंगे, हमारा प्रेम बना रहेगा। प्रेम, विश्वास और धर्म के सूत से बनी यह डोर कभी न टूटेगी…” इस प्रतिज्ञा के बाद भी एक दूसरे को देने के लिए कुछ बचता है क्या? कुछ नहीं।
चौथा फेरा! अबतक वधु आगे थीं, वर पीछे चल रहे थे। चौथे फेरे से वर आगे होते हैं और वधु पीछे। जैसे भावी जीवन के लिए एक बड़ी सीख दी जा रही हो, कि तुममें कोई बड़ा या छोटा नहीं। जीवन के जिस क्षेत्र में पत्नी का आगे रहना सुख दे, वहाँ पति स्वतः पीछे चला जाय, और जब पति का आगे होना आवश्यक हो तो पत्नी बिना प्रश्न किये उसका अनुशरण करे।
चौथे फेरे में पीछे चल रही वधु वचन लेती है,”अब से आप गृहस्थ हुए। इस नए संसार के स्वामी। मेरा और फिर हमारी सन्तति का पालन करना आपका दायित्व है, इसे स्वीकार करें।” पति सर झुका कर स्वीकार करता है।
पुरोहित अग्नि में आहुति दे रहे हैं। समस्त देवताओं के आशीष की छाया है। परिवार और समाज के लोग साक्षी भाव से खड़े मंगल की प्रार्थना कर रहे हैं, और वर वधु की यात्रा चल रही है।
पांचवा फेरा! वधु अब अधिकार मांग रही है। आप मुझसे राय लिए बिना कोई निर्णय नहीं लेंगे। इस गृहस्थी की ही नहीं, आपकी भी स्वामिनी हूँ मैं! मेरा यह अधिकार बना रहे, मेरी प्रतिष्ठा बनी रहे। मुस्कुराते राम शीश हिला कर स्वीकार करते हैं, सिया के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं।
छठवां फेरा! वधु कहती है, “जीवन में सारे पल प्रेम के ही नहीं होते। क्रोध, आवेश के क्षण भी आते हैं। पर आप कभी मेरी सखियों या परिवार जनों के समक्ष मुझपर क्रोधित नहीं होंगे। मेरा अपमान नहीं करेंगे।”
सातवां और अंतिम फेरा! विवाह की अंतिम प्रतिज्ञा! पत्नी का अधिकार दिलाता वचन कि तुम मेरे हो! केवल और केवल मेरे… हमारे बीच कोई नहीं आएगा। कोई भी नहीं… राम मन ही मन कहते हैं, “समस्त संसार स्मरण रखेगा सीता, कि राम और सिया के मध्य कोई नहीं आया। वे एक थे…”
सातों प्रतिज्ञाओं का निर्धारण कन्या की ओर से होता है। पति सहमति देता है, स्वीकार करता है। तभी वधु अपने संसार की स्वामिनी होती है, लक्ष्मी होती है।
सप्तपदी पूर्ण हुई। आशीर्वाद के अक्षत बरसे, स्नेह के पुष्प बरसे… धरा धन्य हुई, राम सिया के हुए!

क्रमशः

Home / Bhopal / “हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं”

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो