हमारा बाहरी कान साउंड कलेक्टर के रूप में काम करता है। यहां से आवाज जाने पर कान में डेढ़ से दो सेंमी. पर मौजूद मैम्ब्रेन वाइब्रेट होता है। इस कंपन को कान के मध्य स्थित तीन छोटी हड्डियां महसूस कर कान के अंदरुनी हिस्से यानी कोक्लिया तक पहुंचाती हैं। यहां मौजूद ऑडिटरी नस इस हलचल को महसूस कर दिमाग के ऑडिटरी भाग तक दिन-रात, सोते-जागते और उठते-बैठते पहुंचाती रहती है। सोते समय यदि इस आवाज से कोई नुकसान होने की आशंका होती है तो हमारी नींद खुल जाती है। सिर्फ कान ही ऐसे हैं जो सोते समय भी हमें सतर्क रखते हैं।
कई शोधों के अनुसार हमारी नींद का आवाज से गहरा संबंध है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तों सेहतमंद रहने के लिए आवाज की तीव्रता दिन के समय 55 डेसिबल और रात को 45 डेसीबल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। कई अन्य तथ्य भी हैं जो आवाज के दुष्प्रभाव से सामने आते हैं।
आवाज और नींद-
सोते समय भी हमारे कान सक्रिय रहकर हर आवाज को गंभीरता से सुनते हैं। ऐसे में ज्यादा तेज आवाज से हमारी नींद टूट जाती है और हम जाग जाते हैं। अक्सर हमें स्वयं इसका पता नहीं लगता कि हम उठ गए हैं। लेकिन इलेक्ट्रोएंसेफेलोग्राफी जांच से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि सोते समय कान में आवाजों के जाने से हमारे दिमाग को भी रेस्ट नहीं मिलता जिस कारण व्यक्ति गहरी नींद में सो नहीं पाता और सुबह थकान व आलस से भरा उठता है।
आवाज और स्ट्रेस हार्मोन-
तेज आवाज के बीच जब हार्मोन्स को लैब में टैस्ट किया तो पाया कि तेज आवाज से दिमाग को संकेत मिलता है और बॉडी अलर्ट होकर जग जाती है। आवाज की तेज व कम गति व्यक्ति के स्ट्रेस हार्मोन्स में असंतुलन पैदा करती है। ऐसे में ब्लड प्रेशर व हार्ट रेट दोनों बढ़ जाती है। यह स्थिति आर्टिरियल वैसोकंस्ट्रिक्शन की है। जिसमें दिमाग हृदय तक ऑक्सीजनयुक्त रक्त नहीं पहुंचा पाता।
सुनाई देने में कमी-
तेज रोशनी में आंखें अचानक बंद हो जाती है, कुछ गर्म छुएं तो हाथ झटक लेते हैं या कुछ चुभने पर उछल जाते हैं। लेकिन कान कभी बंद नहीं होते। तेज या मध्यम हर आवाज सुन लेते हैं। लगातार या लंबे समय तक तेज आवाज में रहने से कान के मध्य भाग की हड्डियों में होने वाला सामान्य कंपन कई बार जरूरत से ज्यादा हो जाता है। यह बेहरेपन की पहली स्टेज होती है।