गूगल से खुद न तय करें इलाज, ऐसे बढ़ रही है दिक्कत
गूगल पर हर रोज करीब एक अरब सवाल सर्च किए जाते हैं। इनमें से 70-80 हजार सवाल हैल्थ से जुड़े होते हैं। इनमें लक्षणों के आधार पर लोग बीमारी की पहचान करते हैं। गूगल रिपोर्ट- 2019
गूगल से खुद न तय करें इलाज, ऐसे बढ़ रही है दिक्कत
स्मार्टफोन का बढ़ता चलन और आसानी से उपलब्ध इंटरनेट लोगों को सुविधा तो दे रहा है लेकिन गलत इस्तेमाल से दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। बहुत से मरीज गूगल और इंटरनेट पर अपनी बीमारी के लक्षणों का सर्च कर न केवल डॉक्टर तय कर रहे हैं बल्कि खुद का इलाज भी कर रहे हैं। जो गलत है। हाल ही ऑस्ट्रेलिया में हुए एक शोध में पाया गया है कि केवल एक तिहाई बीमारियों के बारे में सही जानकारी लोगों को मिलती है।
Case – था माइग्रेन, मरीज को लगा ब्रेन ट्यूमर
कुछ दिन पहले ही एक 25 वर्षीय मरीज आया। वह पहले भी कई डॉक्टर्स को दिखा चुका था। काफी जांचें करवा चुका था। उसको लगता था कि सिर में दर्द ब्रेन ट्यूमर के कारण हो रहा है। क्लीनिकल जांच में पता चला कि उसे माइग्रेन है। पर वह मानने को तैयार न था। कह रहा था कि इंटरनेट पर सर्च कर चुका है। काफी काउंसलिंग के बाद स्वीकारा। दवा और सही दिनचर्या से अब स्वस्थ है। ऐसे मामले अक्सर आते हैं।
49त्न मरीजों को डॉक्टर के पास जाने की सलाह मिली
ऑस्ट्रेलिया के पर्थ स्थित एडिथ कोवान विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 36 से अधिक अंतरराष्ट्रीय वेब-आधारित लक्षण की जांच करने वाली वेबसाइट्स का विश्लेषण किया। इसमें पाया कि इंटरनेट और सर्च इंजन पर केवल 36 फीसदी जानकारी सही होती है। वहीं 52 फीसदी मामलों में बीमारी की सही जानकारी के लिए कई वेबसाइट होने से मरीज में भ्रम की स्थिति होती है। वहीं इंटरनेट की ओर से केवल 49 फीसदी मरीजों को डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी गई। कई बीमारी की जानकारी इंटरनेट पर भी न थी।
इलाज से पहले मेडिकल हिस्ट्री बहुत जरूरी होती है
डॉक्टर्स का कहना है कि किसी भी बीमारी की पहचान के लिए लक्षणों के साथ मेडिकल हिस्ट्री और क्लीनिकल जांचें जरूरी है जो इंटरनेट से संभव नहीं है। इसलिए लोगों को इंटरनेट पर भरोसा नहीं करना चाहिए। इससे कई तरह की दिक्कत होती हैं। मरीज को काफी देरी से सही इलाज मिल पाता है। कई बार बीमारी गंभीर हो जाती है।
पैथोलॉजी और दवाओं की जांच करना मनोरोग भी
बीमारी की जानकारी लेना परेशानी नहीं है। लेकिन पैथोलॉजिकल, दवाओं तक के बारे में जानकारी करना, बार-बार डॉक्टर बदलना भी मनोरोग हो सकता है। इसे ऑस्टेटिव कंप्लसिव डिसऑर्डर कहते हैं। दूसरा हाइपर कॉड्रिकल डिसऑर्डर, इसमें मरीज को लगता है कि बड़ी बीमारी हो गई है। काउंसलिंग-दवा की जरूरत होती है।
डॉ. एमएल पटेल, सीनियर फिजिशियन, किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ
प्रगति पाण्डेय, मनोवैज्ञानिक, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास संस्थान, सीहोर, मध्य प्रदेश
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