script(ऑडियो)  प्रत्यक्ष : कल्याण | Direct: Wellness | Patrika News
ओपिनियन

(ऑडियो)  प्रत्यक्ष : कल्याण

नेत्रहीन हो तुम! विवेकशून्य होÓ कृष्ण क्षण-भर के लिए रुके, ‘बहुत आतुर हो वीरगति पाने को तो वह तुम्हें बहुत शीघ्र मिलेगी। दुर्योधन! पांडवों द्वारा याचना करने पर और कुलवृद्धों द्वारा आदेश दिए जाने पर भी जो राज्य आज तुम पांडवों को नहीं देना चाहते वही तुम युद्धक्षेत्र में शव के रूप में गिकर उन्हें दोगे।’

May 14, 2015 / 12:12 pm

नेत्रहीन हो तुम! विवेकशून्य होÓ कृष्ण क्षण-भर के लिए रुके, ‘बहुत आतुर हो वीरगति पाने को तो वह तुम्हें बहुत शीघ्र मिलेगी। दुर्योधन! पांडवों द्वारा याचना करने पर और कुलवृद्धों द्वारा आदेश दिए जाने पर भी जो राज्य आज तुम पांडवों को नहीं देना चाहते वही तुम युद्धक्षेत्र में शव के रूप में गिकर उन्हें दोगे।’

दु:शासन का मन कांप गया। शिशुपाल का सिर कटते देखा था उसने। द्यूतसभा में भी जब द्रौपदी ने कृष्ण को पुकारा था तो उसका मस्तक घूम गया था। उसे चारों ओर सुदर्शन ही सुदर्शन दिखाई दे रहे थे। उसने असहाय दृष्टि से चारों ओर देखा, सच कह रहे हैं कृष्ण! उस दिन वे यहां नहीं थे। आज वे हैं। 

यदि सत्य ही उन्होंने सुदर्शन निकाल लिया तो कौन बचाएगा कौरवों को? वह पैर दबाए दुर्योधन के पास आया, ‘युवराज! मुझे तो लगता है कि यदि आप कृष्ण से संधि नहीं करते तो आज हमारे पिता ही भीष्म और द्रोण की सहायता से हम तीनों को बंदी कर पांडवों को सौंप देंगे।’ दुर्योधन का चेहरा क्रोध से लाल हो गया, ‘मुझे भी ऐसा ही लगता है। पर मैं उसका अवसर ही नहीं आने दूंगा।’


दुर्योधन उठकर खड़ा हो गया, ‘मुझे इस सभा में बैठकर इन मूर्खों की बातें सुनने की कोई बाध्यता नहीं है।’ वह सभा छोड़कर बाहर निकल गया। उसके पीछे दु:शासन कर्ण, शकुनि तथा उनके मंत्री भी चले गए। भीष्म ने उसे जाते देखा तो बोले, ‘जो धर्म को त्याग कर क्रोध का अनुसरण करता है, उसका नाश दूर नहीं है। लगता है कि क्षत्रियों की फसल पक चुकी है और कट जाने को तैयार है।’

कृष्ण की तेजस्वी वाणी सुनाई दी, ‘कंस ने इसी प्रकार अपने पिता का ऐश्वर्य छीन लिया था और राजा बन गया था। मैंने अपने सजातीय बंधुओं के हित के लिए युद्ध में उसे मार डाला। समस्त कुल के हित के लिए एक व्यक्ति को, ग्राम के हित के लिए एक परिवार को, जनपद के हित के लिए एक ग्राम को और आत्मा के कल्याण के लिए समस्त भूमंडल का त्याग श्रेयस्कर है। भरतवंशियो! यदि आप अपने वंश का कल्याण चाहते हैं तो दुर्योधन, दु:शासन और कर्ण को बंदी कर पांडवों को सौंप दें।’

धृतराष्ट्र का हृदय कांप उठा। कृष्ण स्वयं उसकी राजसभा में सारे भरतवंश के सम्मुख उसके पुत्रों को बंदी कर पांडवों को सौंप देने को आह्वान कर रहे थे। यदि कहीं इससे भीष्म अथवा कोई और वीर प्रेरित हो उठा तो अनर्थ हो जाएगा। दुर्योधन को पांडवों के हाथ सौंपने का अर्थ है, उसे भीम को सौंपना जो उसकी निश्चित मृत्यु है। धृतराष्ट्र की अंधी आंखों के सम्मुख समस्त भूमंडल घूम गया।

‘देवी गांधारी को बुलाओ।’ धृतराष्ट्र के मुख से अनायास ही निकला। ‘जी महाराज!’ विदुर ने निकट जाकर पूछा। धृतराष्ट्र अब तक कुछ संभल गया था। वह कृष्ण को बोलने का और अवसर नहीं देना चाहता था। वे बोले तो जाने उनकी ओजस्विनी वाणी क्या चमत्कार कर जाए। ‘गांधारी को बुलाओ। वह दुर्योधन को समझाए। कदाचित् मां के कहने से दुर्योधन मान जाए और संधि कर ले।’

‘यदि आप सत्य ही पांडवों के साथ संधि के इच्छुक हैं तो आप वह कर सकते हैं।’ विदुर ने कहा,’उसके लिए दुर्योधन की सहमति आवश्यक नहीं है। यदि आप उसे सहमत करना ही चाहते हैं तो समझाना ही तो एकमात्र उपाय नहीं है। समाज के हित के लिए कभी-कभी कठोर होकर हाथ में दंड भी ग्रहण करना पड़ता है महाराज!’धृतराष्ट्र का हृदय फट गया: यह विदुर तो सचमुच ही दुर्योधन को बंदी कर पांडवों को सौंप देना चाहता है।

‘तुम जाकर गांधारी को बुला लाओ।’ धृतराष्ट्र ने अपनी वाणी में जन्मी खीझ को संयत किया, ‘मां के कहने में बहुत बल होता है। तुम जाकर गांधारी को बुला लाओ।Ó

‘अच्छा महाराज!’ विदुर गांधारी को बुलाने के लिए चले गए।

सभा में एक कष्टदायक मौन छाया हुआ था। धृतराष्ट्र के लिए यह समय काटना कठिन था। इससे तो अच्छा था, कृष्ण ही कुछ बोलते रहते, पर कृष्ण का बोलना तो भयंकर हो सकता है। कहीं वे बोलने ही न लग जाएं। धृतराष्ट्र की समझ में नहीं आया कि वह क्या चाहता है, कृष्ण बोलें अथवा न बोलें। नहीं, शायद वह नहीं चाहता कि कृष्ण बोलें। किन्तु कोई तो कुछ बोले।

धृतराष्ट्र का दम घुटने लगा था। वह स्वयं ही बोला, ‘यह मूर्ख दुर्योधन ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर अपना राज्य भी गंवाएगा और प्राण भी। मर्यादा का उल्लंघन कर यह मूढ़ अपने हितैषी गुरुजनों की उपेक्षा कर सभा को छोड़कर चला गया है।’

धृतराष्ट्र की कल्पना में द्यूत के पूर्व के दिन घूम गए। इंद्रप्रस्थ से लौटकर दुर्योधन कैसे एडि़यां रगड़-रगड़कर उनके सम्मुख रोया था। युधिष्ठिर की संपत्ति देख आने के पश्चात् उसको रात को नींद नहीं आती थी। वह उस सारी संपत्ति पर अधिकार करना चाहता था। वह लोभ ही तो था। वह संपत्ति भी उसे मिल गई तो फिर पांडवों को अपमानित करने का क्या औचित्य था। 

उस समय दुर्योधन और उसके मित्रों को धर्म-बंधन में बंधे असहाय पांडवों को पीडि़त करने की क्या आवश्यकता थी। पांडवों की संपत्ति छीन कर अहंकार हो गया था उसे। उसी अहंकार में काम जागा था उसका। पांडवों की पत्नी को अपमानित ही नहीं किया था उसने। वस्तुत: अपने मन में छिपे गुप्त काम को ही सार्वजनिक रूप से प्रकट किया था उसने। 

लोभ, अहंकार और काम की विकृतियों ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी। अपना हित-अहित भी सोच नहीं पाया वह। उसे तो जो हुआ सो हुआ, धृतराष्ट्र को क्या हुआ था? उन्होंने तो न द्रौपदी का रूप देखा था, न युधिष्ठिर की संपत्ति। क्यों सहमत होते चले गए वे दुर्योधन से। उनका पुत्र-मोह उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। जब वह उनके सम्मुख रोने लगता है, हठ करता है, एडियां रगड़ता है, प्राण देने की धमकी देता है, तो वे वह सब कुछ करने को सहमत हो जाते हैं, जो वह चाहता है। 

उसके उस अधर्म की रक्षा वे ही तो कर रहे हैं यह उनका पुत्र-मोह ही है, या सत्ता का मद चढ़ जाता है उनको और वे भी विकृतियों में सुख अनुभव करने लगते हैं? वे असहाय थे अपने पुत्र की सत्ता के सम्मुख अथवा द्रौपदी का निर्लज्ज अपमान होते जान तथा पांडवों को असहाय देख उन्हें अपनी सत्ता का अनुभव होने लगा था?

Home / Prime / Opinion / (ऑडियो)  प्रत्यक्ष : कल्याण

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो