शहर में पंचायत व नगर सरकार की अवधारणा नई नहीं है। समय के साथ स्वरूप बदला, लेकिन होलकर राजाओं ने शहर व राज्य को बेहतर बनाने के लिए इसी व्यवस्था का सहारा लिया था। तात्या जोग उस समय मंत्री थे और शहर में बिजली, पानी, पर्यावरण, स्वच्छता के लिए आर्थिक तंगी महसूस करते थे। जमीनों से मिलने वाली तौजी व अन्य कर इसके लिए पर्याप्त नहीं थे। तब तय किया गया कि स्वशासी व्यवस्था बनाई जाए और प्रमुख लोगों के सहयोग से इसे चलाया जाए। यह व्यवस्था लोक जरूरत पर आधारित थी और इसमें राज्य का भी सहयोग रहा।11 पंच से शुरू हुई व्यवस्था
नगर इतिहास के जानकार बताते हैं, 11 पंच नाम से स्वशासी निकाय का प्रादुर्भाव सर जाॅन माल्कम के काल में हुआ था। बात में इसका विस्तार किया गया। समितियां एक मंडल के नियंत्रण में काम करती थीं। फिर अलग-अलग नगर सेविका समिति, नगर पालिका, परिषद, निगम व गांवों के लिए गांवठी पंचायत आदि नामों से इसे आगे बढ़ाया। 1907-08 में 17 सदस्याें के साथ तुकोजीराव तृतीय के कार्यकाल में इन समितियों को नगर पालिका एक्ट के तहत लाया गया। स्थानीय शासन की शुरुआत हुई।
किराये के मकानों पर लगाया करपहली बार स्वशासन लागू किया तो आय के साधन जुटाए गए। इसके लिए किराये के मकानों पर वार्षिक टैक्स लागू किया। इससे 36000 रुपए की राशि मिली थी। इसके लिए प्रत्येक माेहल्ले से दो किरायेदार सदस्यों को भी लिया गया। इस तरह निकाय को विभिन्न स्रोतों से 58902 रुपए की आय हुई। इसका उपयोग बिजली, पानी, पर्यावरण व साफ सफाई के लिए किया गया।
सड़कों पर पानी का छिड़काव, मिट्टी के तेल से रोशनी शाम को उड़ने वाली धूल से बचने के लिए पाड़ा गाड़ी से पानी का छिड़काव किया जाता था। रात होते ही प्रमुख सड़कों व गलियों में मिट्टी के तेल वाले लैंप जलाए जाते थे। इनकी संख्या 256 होती थी। धीरे-धीरे इन लैंप को हटाकर पेट्रोमेक्स और फिर खंभों पर लट्टू लगाए गए। जन सरकार ही विकास का जरियाहोलकर इतिहास के जानकार सुनील गणेश मतकर का कहना है, होलकर राजाओं के कामकाज में जनता को भी भागीदार बनाने की सोच से स्वशासी संस्थाओं का गठन किया गया। इसे 19वीं शताब्दी में मजबूत बनाया गया। वर्तमान नगर निगम, परिषद का स्ट्रक्चर इसी आधार पर है।