प्लास्टिक या रेपर का नहीं होता इस्तेमाल
पूरी तरह इको फ्रेंडली इस मउड़ में एक भी प्लास्टिक या रेपर का इस्तेमाल नहीं होता। आम तौर पर मार्च से मई के बीच इसकी मांग बढ़ती है। बस्तर में होने वाली अधिकतर शादियों में अभी भी छिंद के पत्तों से बनने वाली सेहरे को तरजीह दी जाती है। बदलते परिवेश में भले ही नई पीढ़ी रेडीमेट सेहरे का इस्तेमाल करने लगी हो लेकिन छिंद के पत्तों का पूरी तरह जगह लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पुराने और पारंपरिक लोग आज भी घरों की शादियों में इसे ही इस्तमाल करते हैं।
छिंद के पत्तों से तैयार करते हैं मउड़
बस्तर की कला और संस्कृति में इतनी गहराई है कि उसकी थाह लेना मुश्किल है। यहां जिक्र करते हैं छिंद के पत्तों से तैयार होने वाले मउड़ यानि सेहरे का। शादियों में इस्तेमाल होने वाले सेहरे को स्थानीय बोली हल्बी में मउड़ कहा जाता है। जिसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ मुकुट या मौर होता है। इसे बनाने वालों के हुनर को जरा गौर से देखियेए बस्तर के वनोपज और कम संसाधन में अच्छा करने का प्रयास इन कलाकरों से सीखें इसमें आपको स्वाभिमानए अपनत्व और प्रकृति से प्रेम नजर आएगा। ये कलाकार जब हुनरमन्द हांथो में छिंद के पिले सुनहरे पत्तों को पकडक़र कुछ ऐसा कलात्मक प्रदर्शन करते हैं जो राजा.महाराजाओं के मुकुट सा बनता है। उसे हल्दी के घोल में डुबोने से और भी दमक उठता है।
उपेक्षित हैं कलाकार
बस्तर के इस विराट परम्परा को जीवित रखने वाले कलाकार आज भी उपेक्षित हैं। भले ही ग्रामीण समाज में इनका मान सम्मान बराबर बना हुआ है लेकिन प्रशासन आज भी इन कलाकारों के लिए कोई पहल नही कर रहा। जिससे इनके हुनर को तव्वजों मिल सके।
तो जीवन स्तर हो सकता है ऊंचा
बस्तर के बेसोली गांव के मउड़ कलाकर चन्दरु पटेल बताते हैं इस कला को यदि कोई मंच मिले तो निश्चित ही कलाकरों का जीवन स्तर ऊंचा हो सकता है। उन्होंने आगे बताया की समाज में मउड़ के कलाकारों को विशेष सम्मान आज भी प्राप्त है विशेष पूजा पाठ व देवी.देवताओं को तर्पण के साथ मउड़ बनाया जाता है।