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लखनऊ

स्कोलियोसिस रीढ़ की हड्डी से संबंधित बहुत गंभीर समस्या हैं, जानिए इसके बारे में और रहिए स्वस्थ

सर्जरी में स्पाइनल फ्यूजन प्रक्रिया के द्वारा स्पाइन के असामान्य विकास को रोकने का प्रयास किया जाता है।

लखनऊJan 25, 2023 / 07:52 am

Ritesh Singh

स्पाइनल इंजरी या संक्रमण

स्पाइनल इंजरी या संक्रमण

स्पाइनल डिसऑर्डर के कारण होने वाली बीमारियों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, जिनमें से स्कोलियोसिस एक है। स्कोलियोसिस एक डिसआर्डर है जिसमें स्पाइन या रीढ़ की हड्डी असामान्य तरीके से मुड़ जाती है। इसमें स्पाइन में कर्व साइड से भी दिखाई देने लगता है।

न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष वैश्य ने बतायाकि अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ न्यूरोलॉजिकल सर्जन्स के अनुसार, स्कोलियोसिस के 80 प्रतिशत मामलों में इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। अधिकतर बच्चों में सात साल की उम्र तक इसका डायग्नोसिस हो जाता है।
स्कोलियोसिस क्या है इस बीमारी की पहचान

न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष वैश्य ने कहा कि रीढ़ की हड्डी जब असामान्य रूप से मुड़ती है तो उसे स्कोलियोसिस कहते हैं। इसके सामान्य आकार में दो कर्व होते हैं, एक ऊपर कंधे की ओर और दूसरा कमर के निचले भाग में। अगर रीढ़ की हड्डी में कर्व साइड की ओर हो या स्पाइन एस या सी के आकार की हो, तो इसका कारण स्कोलियोसिस हो सकता है।

उन्होंने बताया कि यह स्थिति बच्चों में किशोरावस्था तक पहुंचने से पहले विकसित होती है। स्कोलियोसिस के अधिकतर मामलों का कारण पता नहीं है, लेकिन कई बच्चों में यह सेरिब्रल पाल्सी और मस्क्युलर डिसट्रॉफी के कारण होता है। स्कोलियोसिस के अधिकतर मामले मामूली होते हैं, लेकिन कुछ बच्चों में उम्र बढ़ने के साथ स्थिति गंभीर होती जाती है।
जानिए इसके लक्षण

· ऊंचे-नीचे कंधे।

· एक शोल्डर ब्लेड, दूसरी से अधिक उभरी हुई दिखाई देना।

· स्पाइन रोटेट और ट्विस्ट हो जाना।

· एक कंधे की ब्लेड दूसरी से ऊंची होना।
· सांस लेने में दिक्कत होना, क्योंकि फेफड़ों को फैलने के लिए पर्याप्त स्थान न मिलना।

· कमरदर्द।


जानिए किस कारण होती है यह बीमारी

न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष वैश्य ने कहा इसके अधिकतर मामले अनुवांशिक होते हैं, क्योंकि यह समस्या बच्चों को विरासत में मिलती है। इसके अलावा और भी वजह हो सकती है।
· न्यूरो मस्क्यूलर कंडीशन्स जैसे सेरिब्रल पाल्सी या मस्क्युलर डिसट्रॉफी।

· जन्मजात विकृतियां जो रीढ़ की हड्डी के विकास को प्रभावित करती हैं।

· रीढ़ की हड्डी में चोट या संक्रमण।

. स्पाइनल इंजरी या संक्रमण।

· जन्मजात विकृति जो नवजात शिशुओं की स्पाइनल बोन को प्रभावित करती है, जैसे स्पाइनल बायफिडा।

लड़का-लड़की की उम्र : स्कोलियोसिस, कम उम्र में ही होता है, किशोरावस्था से पहले। वैसे तो यह समस्या लड़का-लड़की दोनों में हो सकती है, लेकिन लड़कियों में इसका खतरा अधिक होता है।
पारिवारिक इतिहास : जिन बच्चों के परिवार में स्कोलियोसिस होता है, उन्हें इसका खतरा अधिक होता है।

फेफड़ों और हृदय का क्षतिग्रस्त हो जाना : स्कोलियोसिस के गंभीर मामलों में, पसलियों के कारण फेफड़ों और हृदय पर दबाव बढ़ता है, जिससे सांस लेने और हृदय कत रक्त पंप करने में कठिनाई होती है।
कमर दर्द का होना : जिन वयस्कों को बचपन में स्कोलियोसिस था, उन्हें सामान्य लोगों की तुलना में कमर दर्द अधिक होता है।

शरीर का रूप प्रभावित होना : स्कोलियोसिस के कारण शरीर में कई परिवर्तन दिखाई देते हैं, जैसे कमर का पिछला भाग, कंधे, पसलियां और रीढ़ की हड्डी के आकार में परिवर्तन आ जाना।
डायग्नोसिस: आपका डॉक्टर सबसे पहले शारीरिक परीक्षण करेगा, यह पता लगाने के लिए की कहीं आपको स्कोलियोसिस तो नहीं है। स्पाइन की संरचना को समझने के लिए कुछ इमेजिंग टेस्ट कराने की सलाह भी दे सकता है। इमेजिंग टेस्ट में सम्मिलित हैं

· एक्स-रे

· एमआरआई स्कैन

· सीटी स्कैन

· बोन स्कैन


उपचार: न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष वैश्य ने बतायाकि उपचार कई कारकों पर निर्भर करता है, जिनमें सम्मिलित हैं स्पाइन में कर्व कितना है, कर्व लगातार बढ़ तो नहीं रहा है और स्कोलियोसिस का प्रकार क्या है। उपचार के सबसे प्रमुख विकल्प ब्रेसिंग और सर्जरी हैं। कुछ बच्चों को कर्व को बढ़ने से रोकने के लिए ब्रेस पहनने पड़ते हैं, अधिक गंभीर मामलों में सर्जरी की जरूरत पड़ती है।

ब्रेसिंग: अगर कर्व लगातार बढ़ रहा है और यह 25-40 डिग्री है तो ब्रेसिंग की जरूरत पड़ सकती है। ब्रेसिंग से रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं होती, लेकिन यह कर्व को बढ़ने से रोक सकती है। जब स्कोलियोसिस की पहचान जल्दी हो जाती है, तब ब्रेसिंग अधिक प्रभावी होता है। जिन लोगों को ब्रेस लगाए जाते हैं, उन्हें इसे प्रतिदिन 15-23 घंटे तक पहनना पड़ता है, जब तक कि यह विकसित होना रुक न जाए। जितने अधिक समय तक मरीज इसे लगाए रखेगा, परिणाम उतने बेहतर आएंगे।

सर्जरी: उन लोगों के लिए सर्जरी जरूरी हो जाती है जिनका कर्व 40 डिग्री से अधिक हो। सर्जन के सामने सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि स्पाइन के विकास को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित किए बिना कर्व को बढ़ने से कैसे रोका जाए। सर्जरी में स्पाइनल फ्यूजन प्रक्रिया के द्वारा स्पाइन के असामान्य विकास को रोकने का प्रयास किया जाता है।

सर्जरी के बाद की सावधानियां

मरीज सर्जरी के बाद तुरंत ठीक नहीं हो जाते, उन्हें ठीक होने में कुछ समय लगता है। घाव 7-14 दिनों में भर जाते हैं और फ्यूजन को पूरी तरह ठीक होने में 6-9 महीने का समय लगता है। मरीज की स्थिति में सुधार छह महीने बाद दिखने लगता है। सर्जरी के बाद किसी भी भारी सामान को उठाने, मुड़ने या तेजी से घूमने से बचना चाहिए। इस दौरान केवल उतनी एक्सरसाइज करें जिससे स्पाइन पर दबाव न पड़े या मुड़े न। जब तक फ्युजन ठीक नहीं हो जाता तब तक फुटबॉल, हॉकी और मार्शल आर्ट्स जैसे खेलों से दूर रहें।

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