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नन्द साम्राज्य का विनाश कर मौर्य वंश की स्थापना कर अखंड भारत की रचना करने वाले आचार्य चाणक्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में कई ऐसे गुप्त सूत्र बताए हैं जिनका प्रयोग कर कोई भी जीवन में बड़ी आसानी से सफल हो सकता है। ये सूत्र इतने सरल है कि सोचने मात्र से ही आप अपना सकते हैं।
कामधेनुगुणा विद्या ह्ययकाले फलदायिनी। प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्॥
अर्थात् विद्या कामधेनु के समान गुणों वाली है, बुरे समय में भी फल देने वाली है, प्रवास काल में माँ के समान है तथा गुप्त धन है।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥
अर्थात् मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर, दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्॥
अर्थात् चाणक्य कहते है कि जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले, जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत॥
अर्थात् जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए।
मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्। मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चापि नियोजयेत्॥
अर्थात् मन में सोचे हुए कार्य को मुंह से बाहर नहीं निकालना चाहिए। मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए। गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए।
माता शत्रुः पिता वैरी येनवालो न पाठितः। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा॥
अर्थात् चाणक्य कहते है कि बच्चे को न पढ़ानेवाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं। बिना पढ़ा व्यक्ति पढ़े लोगों के बीच में कौए के समान शोभा नहीं पता।
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा। बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता॥
अर्थात् चाणक्य कहते है कि विद्या ही ब्राह्मणों का बल है। राजा का बल सेना है। वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है।
दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे॥
अर्थात् दुष्ट और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट। साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है॥
रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः। विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥
अर्थात् चाणक्य कहते है कि रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैं और शोभा नहीं देते |
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च। व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥
अर्थात् घर से बाहर विदेश में रहने पर विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोगी के लिए दवा मित्र होती है तथा मृत्यु के बाद व्यक्ति का धर्म ही उसका मित्र होता है।
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥
अर्थात् चाणक्य कहते है कि जिस व्यक्ति के पास पैसा है लोग स्वतः ही उसके मित्र बन जाते हैं। बन्धु- बान्धव भी उसे आ घेरते हैं। जो धनवान है उसी को आज के युग में विद्वान् और सम्मानित व्यक्ति मन जाता है।
Published on:
02 Jul 2018 03:22 pm
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