फायदे का दावा : नकदी कम होगी, पारदर्शिता आएगी
नए प्रावधानों के मुताबिक राजनीतिक दल अब 2000 रुपए तक का चंदा ही एक दानकर्ता से नकद ले सकते हैं। इससे ऊपर की ही राशि पर दानकर्ता की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी। पहले यह सीमा 20 हजार रु. थी, जिसका दल खूब फायदा उठाते थे। उनका अधिकांश चंदा इस सीमा से नीचे ही रहता था। इसलिए सरकार ने जनवरी 2018 में ‘इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम’ शुरू की। कोई भी व्यक्ति या कंपनी शर्तों को पूरा करने वाले दल के न्यूनतम एक हजार से एक करोड़ रु. तक के बॉन्ड खरीद सकता है। सरकार का दावा है, अब कैश चंदा कम होगा और दलों को मिलने वाले बड़े चंदे की ज्यादा जानकारी रहेगी।
समझें क्या है ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’
पंजीकृत दल, जिसे पिछले विधानसभा या लोकसभा चुनाव में 1त्न वोट मिले हों, उसके नाम का बॉन्ड खरीदा जा सकता है।
चुनावी बॉन्ड की न्यूनतम कीमत एक हजार रुपए व अधिकतम एक करोड़ रुपए है।
चरणबद्ध ढंग से एक महीने में 10 दिन बॉन्ड की बिक्री होती है।
चुनावी बॉन्ड भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं में मिलते हैं।
बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान गुप्त रहती है लेकिन बैंक को केवाईसी जानकारी देनी पड़ती है। बॉन्ड चैक/डिजिटल पेमेंट से ही मिलेगा।
बॉन्ड दल के चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा होगा।
राजनीतिक दलों को बैंक अकाउंट चुनाव आयोग को बताना होता है, जिसमें वह इस बॉन्ड के पैसे प्राप्त कर सकते हैं।
हर राजनीतिक दल को अपने सालाना प्रतिवेदन में बताना होगा है कि उसे कितने बांड मिले।
बॉन्ड जारी होने के 15 दिनों के भीतर दलों को उसे कैश कराना होता है। अन्यथा पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाता है।
जिस वर्ष लोकसभा चुनाव होंगे, उस वर्ष बांड खरीदने के लिए तीस दिन अतिरिक्त मिलेंगे।
बड़ी कमाई तो भाजपा ने ही की !
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के आम बजट में ‘इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम’ की घोषणा की। उन्होंने कहा, कैश चंदा हतोत्साहित होगा, पारदर्शिता बढ़ेगी। लेकिन देखने में आया कि इस योजना का सबसे ज्यादा लाभ तो सत्तारूढ़ भाजपा को ही मिला। आंकड़ों को देखें तो पहले चरण (1-10 मार्च) में कुल 222 करोड़ रु. के बॉन्ड बिके। इनमें से 210 करोड़ रुपए यानी करीब 95 फीसदी बॉन्ड अकेले भाजपा को मिले।
पर ये नुकसान : कालाधन सफेद करने का जरिया !
सरकारी दावे के इतर इस स्कीम का दूसरा पहलू देखें तो इस स्कीम पर कई सवाल भी खड़े होते हैं। बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम गुप्त रहता है। किसने, कितना और किसे चंदा दिया इसका खुलासा नहीं हो सकता। पहले कोई भी कंपनी अपने मुनाफे के साढ़े सात फीसदी से ज्यादा दान नहीं कर सकती थी, वह सीमा खत्म हो गई। अब कोई भी चाहे जितना चंदा दे सकता है। उसका नाम चुनाव आयोग, आयकर विभाग के समक्ष उजागर नहीं होगा। वहीं इसके जरिए कालाधन सफेद करने की गुंजाइश भी ज्यादा बढ़ गई है।