पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन कर्बला (इराक़ का शहर) में मुहर्रम की 10 तारीख़ (जिसे यौमे आशूरा कहा जाता है) के दिन शहीद हुए। मुहर्रम का महीना क़ुर्बानी का महीना है। इमाम हुसैन से उस वक़्त का शासक यज़ीद यह चाहता था कि वेउसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसके शासन को सही मानें, लेकिन क्योंकि यज़ीद इस्लाम धर्म में शासक और शासन के लिए निर्धारित मापदण्डों पर पूरा नहीं उतरता था, इसलिए इमाम हुसैन और उनके समर्थक इसके लिए तैयार नहीं थे। वे पहले मदीने से मक्के की तरफ़ चले आए, ताकि मदीना जो उनके नाना का नगर था, वहाँ पर कोई बवाल खड़ा ना हो। इमाम हुसैन को यह विश्वास था कि मक्का, जो शान्ति का प्रतीक नगर था और जहाँ किसी भी जीव-जन्तु को मारना निषेध था, वहाँ पर वे शान्ति से रह सकेंगे, लेकिन मक्का पहुँच कर कुछ दिनों में ही उन्हें आभास हो गया कि सत्ताधारी पक्ष उन्हें सताने के लिए मक्का की गरिमा को भी क्षति पहुँचा सकते हैं। इसके बाद वे वहाँ से भी अपने प्रियजनों और समर्थकों के साथ कूफ़े (इराक़ का एक शहर) की तरफ़ चल दिए, क्योंकि वहाँ से बार-बार बुलावा आ रहा था, लेकिन उन्हें कर्बला नामी जगह के पास यज़ीद की फ़ौजों ने घेर लिया।
इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान में अपना सर कटवा दिया, लेकिन बुराई और यज़ीद के शासन का समर्थन करने के लिए उसके हाथ में अपना हाथ नहीं दिया और इस तरह वे अपने उद्देश्य में सफल रहे और यज़ीद नाकाम रहा। हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी ने इसी वास्तविकता को काव्य के रूप में यूँ बयान किया है:
दीं हस्त हुसैन, दीं पनाह हस्त हुसैन,
सर दाद न दाद, दस्त दर दस्ते यज़ीद,
हक़्क़ा कि बिनाए ला इलाह हस्त हुसैन। (हुसैन शाह हैं, हुसैन बादशाह हैं। हुसैन धर्म हैं और धर्म को शरण देने वाले भी हुसैन हैं। उन्होंने अपना सर कटवा दिया, लेकिन यज़ीद के हाथ पर उसके शासन का अनुमोदन नहीं किया। सच यह है कि ला इलाह (यानी अल्लाह के अलावा कोई सर झुकाने के योग्य नहीं) की नींव की रक्षा करने वाले भी हुसैन हैं।
दुनिया में इमाम हुसैन और उनके समर्थकों के बलिदान को चौदह सौ साल से दुनिया भर में हर साल मुहर्रम के रूप में मनाया जाता है। हिन्दुस्तान में भी धर्म, क्षेत्र और भाषा से ऊपर उठ कर इमाम हुसैन को याद किया जाता है, उनकी शहादत पर मातम किया जाता है और ख़ुद हिन्दुओं में ब्राह्मणों की एक गोत्र ‘‘दत्त’’ में हुसैनी ब्राह्मण भी पाये जाते हैं। उर्दू काव्य में मर्सिया (शोक-गीत) के अलावा दूसरी भाषाओं और बोलियों में भी एक बड़ा संग्रह मिलता है और उसकी विशेषता यह है कि वह दुखद घटना जो कभी इराक़ में कभी फ़रात नदी के किनारे घटी थी, उसे गोमती नदी के किनारे हिन्दुस्तानी कवियों ने इस तरह दर्शाया है कि भारतीय रीति-रिवाज उसमें समा गए हैं। इमाम हुसैन और उनके सहयोगियों की शहादत हमारे विवेक में इस तरह रम गई है कि सैदानियाँ (सय्यद घराने की औरतें) जब किसी को दुआ भी देती हैं तो यही कहती हैं कि ‘‘ख़ुदा तुम्हें ग़मे-हुसैन के अलावा कोई दूसरा ग़म ना दे।’’