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नागौर

शांति कराने गई थी सेना, दो साल उन्हीं से युद्ध करना पड़ा

संदीप पाण्डेय नागौर. तकरीबन 35 साल होने को आए। गए तो शांति के दूत बनकर थे पर युद्ध झेलना पड़ा। एक बारगी तो वापस आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। जयपुर रियासत के पूर्व महाराज और सेना में कर्नल रहे भवानीसिंह अगर टैंक लेकर नहीं पहुंचते तो जिंदा नहीं रहते। करीब दो साल दो महीने का अरसा, दो-चार घंटे कभी आराम तो कभी तीन-तीन दिन तक गोलीबारी। पग-पग पर बारूद बिछा था, आलम यह था कि टैंक तक रेल की पटरी पर पहुंचे थे। मौत पल-पल आने का अंदेशा था। सुकून दूर-दूर तक नहीं था, लंबे समय के संघर्ष ने आखिर एक दिन उन्हें सस

नागौरJan 27, 2022 / 10:56 pm

Sandeep Pandey

-पैरा कमाण्डो की दास्तां

श्रीलंका में लिट्टे के आतंक से हौसले की जंग




यह कहना है पैरा कमाण्डो उम्मेद सिंह का। नागौर मूंदियाड़ के उम्मेद सिंह सेना में पैरा कमाण्डो था। वर्ष 1980 में उसकी भर्ती हुई। करीब सात साल बाद भारत की शांति सेना (आईपीकेएफ़) को श्रीलंका के जाफना में जुलाई 1987 में बड़े विमानों ने उतारा। जिसमें उस समेत सैकड़ों साथी शामिल थे। उम्मेदसिंह का कहना है कि शांति सेना का मक़सद था लिट्टे के लड़ाकों से हथियार रखवाना और श्रीलंका में शांति स्थापित करना, लेकिन वहां तो लिट्टे के साथ युद्ध शुरू हो गया।
उम्मेद सिंह का कहना है कि पहले दिन जब हम यहां पहुंचे, श्रीलंका के सैनिकों ने सोचा कि हम उन पर हमले के लिए आए हैं और उन्होंने अपने हथियार नीचे रख दिए। हमने उनसे हाथ मिलाया और कहा कि हम शांति मिशन पर हैं। श्रीलंकाई तमिलों ने सोचा के शांति सेना उनकी रक्षा करने आई है, उनका ज़ोरदार स्वागत किया गया। लोगों को लगा शांति सेना उन्हें श्रीलंका की सेना से बचाने आई है। श्रीलंका पहुंचने के कुछ वक्त बाद ही शांति सेना ने उत्तरी इलाकों में श्रीलंका के सैनिकों की जगह ले ली।
युद्ध के बारे में सोचा ही नहीं
उन्होंने बताया कि भारतीय जवान श्रीलंका में किसी युद्ध के बारे में नहीं सोच रहे थे। कई यूनिट वहां गई तो उनके पास हथियार नहीं थे, उन्हें लगा कि शांति मिशन पर हथियारों की क्या जरूरत?”शुरुआत में शांति सेना और लिट्टे के रिश्ते अच्छे थे। लिट्टे आधुनिक हथियार और संचार उपकरण से लैंस थे। जहां हमारे रेडियो सेट की रेंज 10-15 किलोमीटर थी, उनके रेडियो सेट की रेंज 40-45 किलोमीटर थी। लिट्टे ने समर्पण से इनकार कर दिया तो शांति सेना के साथ उनके संबंध खराब होने लग। जल्द ही दोनों के बीच युद्ध शुरू हो गया और शांति सेना ने लिट्टे के गढ़ जाफऩा पर कब्ज़ा करने के लिए अक्टूबर 1987 में हमला बोल दिया। ये हमला जाफना विश्वविद्यालय मैदान में शुरू होना था जो आईपीकेएफ के पलाली एअरबेस मुख्यालय से कुछ किलोमीटर की दूरी पर था। कर्नल दलबीर सिंह और मेजर सोनानी के साथ हम सैनिकों का का काम था हेलिकॉप्टर की मदद से मैदान में लैंड करना।
हमारे पहुंचने की लग गई थी भनक
उम्मेद सिंह ने बताया जाफना पहुंचे रात करीब दो बजे, करीब ढाई बजे लिट्टे के लड़ाकों ने फायरिंग शुरू कर दी। तीन दिन तक लगातार लड़ाई चली। पहले 22 फिर सात जवान शहीद हुए। ऐसे ही आए दिन चलता रहा। न दिन को चैन न रात को सुकून। तब सैनिकों के शव नहीं आया करते थे, वहीं अंतिम संस्कार कर दिए जाते थे। कई बार भारतीय आर्मी से मदद के लिए कहा जाता। एक बार ता ऐसा फंसे कि निकल ही नहीं पा रहे थे। सेना के रिटायर कर्नल और जयपुर के पूर्व महाराज भवानी सिंह खुद मदद करने पहुंचे। चार टैंक पटरियों के सहारे लाए, क्योंकि वहां तो पग-पग पर बारूद बिछा रहता था। तब जाकर निकल पाए।
प्रभाकरण का खौफ और जनता बेहाल
कई बार राजीनामे की स्थिति बनी, लेकिन लिट्टे के लड़ाके सायनाइड खा लेते। तकरीबन तीन साल संघर्ष चला फिर चुनाव कराए गए। तब जाकर लौट आए। जाफना समेत अन्य प्रभावित क्षेत्रों में हमने देखा था मौत का खौफ। हेलिकॉप्टर तो मण्डराते रहते थे। तब शहीदों को केवल 25 बीघा जमीन, पेंशन और आश्रित को सरकारी नौकरी देने का चलन था। उम्मेद सिह ने करीब डेढ़ साल तक भवानी सिंह की गाड़ी भी चलाई। भवानी सिंह रिटायर होने के बाद भी सैनिकों की मदद करने पहुंचते रहते थे।
कुछ भी एक्सट्रा नही
उम्मेद सिंह बताते हैं कि वहां रहे पर बहुत कुछ नहीं मिला। वहां के पांच सौ रुपए मिलते थे, साबुन-सर्फ के लिए। वहां सब शांति कराकर आए, दिन-रात गोलियां चलाई। बीच में दो बार बीस-बीस दिन के लिए घर आया। हेलिकॉप्टर/विमान से उतरने का हुनर खूब सीखा। शांति रहे, यही दुआ है। पुराने सैनिकों की भी सार-संभाल पूरी हो, यही गुहार है।
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