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बिगड़ा नकदी नेटवर्क

बीएसएनएल-एमटीएनएल के पुनरुत्थान के प्रस्तावों पर जल्द फैसले के साथ ऐसे ठोस नीतिगत कार्यक्रम की जरूरत है जिससे उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ सके…

Jun 26, 2019 / 02:08 pm

dilip chaturvedi

bsnl news

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कभी केन्द्र सरकार के ‘नौ रतनों’ में शामिल रही सार्वजनिक क्षेत्र की टेलीकॉम कम्पनी भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) नकदी के गंभीर संकट से जूझ रही है। उसके पास अपने 1.7 लाख कर्मचारियों को जून का वेतन देने के लिए धन नहीं है। इसी साल फरवरी में भी इस तरह की खबरें आई थीं कि बीएसएनएल अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए करीब 850 करोड़ रुपए का बंदोबस्त नहीं कर पा रही है।

आर्थिक मोर्चे पर यह नाजुक दशा सार्वजनिक क्षेत्र की उस कम्पनी की है, जो देशभर में पंद्रह हजार से ज्यादा इमारतों और ग्यारह हजार एकड़ से ज्यादा जमीनों की मालिक है। दरअसल, ‘मुनाफाÓ कई साल से बीएसएनएल के लिए मृग मरीचिका बना हुआ है। उसके साथ सार्वजनिक क्षेत्र की दूसरी कम्पनी एमटीएनएल भी 2010 से लगातार घाटे में चल रही है। वित्त वर्ष 2017 में बीएसएनएल को 4,789 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था तो 2018 में यह आंकड़ा बढ़ कर 8,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। इस साल इसके और बढऩे के आसार जताए जा रहे हैं। हालात यह हैं कि बिजली बिलों का भुगतान नहीं करने पर कई राज्यों की सरकारों ने लोकसभा चुनाव से पहले बीएसएनएल और एमटीएनएल की बिजली काटने की चेतावनी दी थी।

बीएसएनएल की इस दयनीय हालत के लिए खुद बीएसएनएल और सरकार की नीतियां ज्यादा जिम्मेदार हैं। सरकार ने कभी इस पर गहन पड़ताल को प्राथमिकता नहीं दी कि उसके बीएसएनएल और एयर इंडिया जैसे कमाऊ सपूत धीरे-धीरे घाटे के टापू क्यों बनते जा रहे हैं। नब्बे के दशक में बोई गई आर्थिक उदारीकरण की फसल का जितना फायदा निजी टेलीकॉम कम्पनियों ने उठाया, बीएसएनएल नहीं उठा पाई। इसके बावजूद कि उसके पास संसाधन निजी कम्पनियों से कहीं ज्यादा थे।

देश में सबसे बड़ा ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (करीब 8.19 लाख किलोमीटर) बीएसएनएल के पास है, पर रिलायंस जियो इसके आधे से भी कम नेटवर्क के बूते उसे पीछे धकेल रही है तो जाहिर है कि बीएसएनएल के संचालन में बड़ा गड़बड़झाला है। लोकसभा चुनाव से पहले वित्त मंत्रालय ने बीएसएनएल और एमटीएनएल के पुनरुत्थान के प्रस्तावों को नई सरकार को सौंपने के संकेत दिए थे। इनमें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस), सम्पत्ति मौद्रीकरण और 4जी स्पेक्ट्रम के आवंटन के प्रस्ताव शामिल हैं।

नई सरकार को आए एक महीना होने को आया, इन प्रस्तावों पर कोई पहल सुनाई नहीं दी है। इन प्रस्तावों पर जल्द फैसले के साथ ऐसे ठोस नीतिगत कार्यक्रम की जरूरत है, जो उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ाए और बाजार के अवरोधकों को भी दूर करे। निजी कम्पनियों के खिलाफ खड़े सार्वजनिक क्षेत्र के सपूत बाजार में टिके रहने के मंत्र को जितनी जल्दी समझ लेंगे, उनके अस्तित्व के लिए उतना ही बेहतर होगा।

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