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एक बौद्धिक मौजूदगी थे शुजात

विडम्बना देखिए कि नकाबपोश हमलावरों ने शुजात पर तब गोलियां बरसाईं, जब घाटी ईद की खुशियां मनाने जा रही थी।

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Sunil Sharma

Jun 16, 2018

shujat bhukhari

shujat bhukhari

- उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार

कश्मीर में मिलिटेंसी की आग पुरानी है। उसमें बेशुमार बेगुनाह नागरिक मारे गए। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी समाज और शासन से विवेक का तकाजा रखने वाले मीडियाकर्मियों पर सिर्फ दो बार हमला हुआ। 1993 में बीबीसी के दफ्तर में लैटर-बम फोड़ा गया, जिसमें फोटो पत्रकार मुश्ताक अहमद की जान चली गई और संवाददाता यूसुफ जमील बुरी तरह घायल हो गए। फिर २००३ में परवेज मुहम्मद सुल्तान की हत्या पत्रकारों के उसी इलाके में हुई, जहां गुरुवार को शुजात बुखारी को मारा गया।

विडम्बना देखिए कि नकाबपोश हमलावरों ने शुजात पर तब गोलियां बरसाईं, जब घाटी ईद की खुशियां मनाने जा रही थी। शुजात दफ्तर से निकल इफ्तार को जा रहे थे। उनके दो अंगरक्षक भी मारे गए। घाटी में गंभीर पत्रकारिता तलवार की धार पर चलना है। शुजात ने हमेशा आतंकवाद, फौज और पाकिस्तान का निडर विवेचन किया। पत्रकारों के बारे में अक्सर पूछा जाता है कि वे किसके साथ हैं। जितना मैं शुजात को जानता था, उसके आधार पर कह सकता हूं कि वे सदा सत्य के साथ थे। यही सत्यनिष्ठा उन्हें भय से ऊंचा उठाती थी। न सिर्फ जम्मू-कश्मीर और दिल्ली, बल्कि परदेस में भी शुजात की एक बौद्धिक मौजूदगी थी।

पिछले माह प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा के बाद शुजात ने केंद्र की ढुलमुल नीति की कड़ी आलोचना की। गृहमंत्री की नरम कोशिशों के बीच रक्षामंत्री के रवैए और इनके बरक्स प्रधानमंत्री के विपरीत रुख की ओर इशारा करते हुए उन्होंने लिखा - मोदी ने कश्मीर आकर 2014 के बाद सम्भवत: नौंवी बार वाजपेयी के ‘कश्मीरियत’ के तकाजे को तो दोहराया, लेकिन ‘जम्हूरियत’ (लोकतंत्र) और ‘इंसानियत’ के तकाजे को स्मरण करना फिर भूल गए।

शुजात का जाना मेरे लिए निजी सदमा भी है। उनसे बीस साल की दोस्ती थी, जब वे श्रीनगर में जम्मू से निकलने वाले ‘कश्मीर टाइम्स’ के संवाददाता थे। फिर वे ‘द हिंदू’ से जुड़े और बाद में अपना दैनिक ‘राइजिंग कश्मीर’ लाए, जो बहुत थोड़े समय में घाटी का प्रमुख पत्र बन गया। शुजात उर्दू और कश्मीरी में भी इसका सम्पादन करते थे।

एक बड़े पत्रकार की हत्या ने कश्मीर को फिर एक विकट मोड़ पर ला खड़ा किया है। वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने समस्या का हमेशा राजनीतिक हल चाहा, पर पीडीपी-भाजपा सरकार ने उन कोशिशों को अस्थिर नीतियों में उलझा दिया है। शुजात का जाना संकेत देता है कि सामने अभी अच्छे आसार तो नहीं।