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नदियों को मिले संकल्प का सहारा

हमारे सिस्टम के प्रवाह में भी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और लापरवाही जैसी गंदगियां गहरे तक पैठ गई हैं।

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Sunil Sharma

Jun 15, 2018

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- अतुल कनक, लेखक

पिछले दिनों राजस्थान के कोटा शहर के नगर विकास न्यास और नगर निगम के खिलाफ प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में चंबल नदी की हत्या के षडयंत्र का मुकदमा दायर किया। किसी नदी की हत्या के प्रयास की बातें सरसरी तौर पर भले ही अटपटी प्रतीत हो सकती हैं। लेकिन हमें याद होगा कि देश की एक बड़ी अदालत ने कुछ समय पहले ही यह कहा था कि नदियों के भी मानव अधिकार होते हैं और उनकी रक्षा की जानी चाहिए।

कोटा शहर का विकास चंबल के ही वरदान का परिणाम है। लेकिन देश के अन्य नगरों की तरह यह शहर भी उस नदी की शुचिता के प्रति लापरवाह बना रहा, जिस नदी ने इसके विकास के सपनों को भरपूर दुलार दिया है। परिणाम यह हुआ कि चंबल भी देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों की शृंखला में जा खड़ी हुई। यह कहानी केवल चंबल की नहीं है। देश की अधिकांश नदियां आज ऐसे ही अभिशाप से जूझ रही हैं। सबका उद्धार करने में सक्षम मानी जाने वाली गंगा नदी भी इस अभिशाप से अछूती नहीं। गंगा की सफाई के लिए प्रयासों की शुरुआत बरसों पहले हुई थी। वर्ष १९८५ में तो बाकायदा केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना की गई। अब सरकार ‘नमामि गंगे’ अभियान के जरिए गंगा को स्वच्छ करने में जुटी है। पिछले सवा तीन दशकों में गंगोत्री के ग्लेशियर से पिघलकर बहुत सारा पानी समुद्र में समा गया, लेकिन गंगा अब भी प्रदूषण से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रही है।

सरकार का लक्ष्य है कि वर्ष 2020 तक करोड़ों रुपए खर्च करके गंगा को प्रदूषण से मुक्त करा लिया जाए। लेकिन जब जिम्मेदार अधिकारी अपनी उपलब्धियों के झूठे शपथ पत्रों से सबको भ्रमित करने पर आमादा हो जाएं तो परियोजना के नाम पर बजट का व्यय तो किया जा सकता है, इच्छित लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकते। दरअसल, हमारे सिस्टम के प्रवाह में भी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और लापरवाही जैसी गंदगियां गहरे तक पैठ गई हैं। यही वजह है कि गंगा, यमुना, नर्मदा और चंबल सहित देश की अधिकांश नदियां इसी दंश को झेल रही हैं।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब संत बलबीर सिंह सीचेवाल ने सरकारी मदद के बिना पंजाब की कालीबेई नदी साफ करने का बीड़ा उठाया। कालीबेई के उजले दिन लौट आए। सवाल सबसे बड़ा यही है कि क्या प्रदूषण से जूझ रही देश की अन्य नदियों को कभी ऐसे ही किसी संकल्प का सहारा मिलेगा?