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डॉ. मुखर्जीः भारतीय संस्कृति के अनुकूल राजनीतिक दर्शन के प्रणेता

6 जुलाईः डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जयंती
डॉ. मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। राजनीति में उनकी सक्रियता के मायने उन आदर्शों का परिपालन था, जो मनुजता के कवच का काम करते हैं। अपने राजनीतिक आचरण में वह आध्यात्मिकता का आचमन करते प्रतीत होते हैं।

Jul 06, 2022 / 10:25 pm

Patrika Desk

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी

विष्णु दत्त शर्मा
मध्य प्रदेश से लोक सभा सदस्य

भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के व्यक्तित्व का समग्र विश्लेषण उन्हें उन युग-पुरुषों में स्थापित करता है, जो वर्तमान की देहरी पर बैठकर भविष्य की सामाजिक और राजनीतिक गणनाओं का आकलन करने में समर्थ थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दरम्यान तीस-चालीस के दशक में उन्होंने जान लिया था कि २१वीं सदी में आजाद भारत की समस्याएं क्या होंगी? इसी के मद्देनजर उन्होंने 1951 में ही भारतीय जनसंघ के रूप में ऐसे राजनीतिक दल की नींव रखी थी, जो आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में आजादी के अमृत महोत्सव के क्षणों में देश को उन समस्याओं से निजात दिलाने की ओर अग्रसर है, जो विरासत में मिली हैं। डॉ. मुखर्जी बंगाली भद्रलोक के प्रभावशाली परिवारों में जन्मे ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी खुद की और परिवार की बौद्धिकता की तूती बोलती थी।
मात्र 33 साल की उम्र में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए थे। शिक्षा के शिखर से उतरकर भारतीय राजनीति में भी उनका पदार्पण गहन राष्ट्रीय उद्देश्यों की खातिर था। मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति के कारण वह भारत की एकता व अखंडता पर मंडरा रहे खतरे को लेकर काफी चिंतित रहते थे। हिन्दू एकता और अखंडता पर आसन्न खतरों ने उन्हे हिंदू महासभा की ओर आकर्षित किया, जिसका नेतृत्व वीर सावरकर करते थे। 1939 में वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए। अध्यक्ष के रूप में उन्होंने घोषणा की कि संयुक्त भारत के लिए तत्काल समग्र स्वतंत्रता हासिल करना हिंदू महासभा का मूल उद्देश्य है। आजादी के बाद महात्मा गांधी के कहने पर ही पंडित नेहरू ने डॉ. मुखर्जी को केबिनेट में शरीक किया था। केबिनेट में रहकर उन्होंने कई बड़े काम किए, पर पाकिस्तान, कश्मीर या शरणार्थियों जैसे मसलों पर दोनों के बीच राजनीतिक असहमति व्यापक और गहरी थी, जो केबिनेट से उनके इस्तीके का सबब बनी। अगस्त 1952 में लोकसभा में कश्मीर के मुद्दे पर भाषण देते हुए डॉ. मुखर्जी ने कहा था- ‘दुनिया को यह पता होना चाहिए कि भारत महज एक थ्योरी या परिकल्पना नहीं है, बल्कि एक यथार्थ है… एक ऐसा देश जहां हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और सभी बिरादरी के लोग बगैर किसी भय के समान अधिकारों के साथ रह सकेंगे… यही हमारा संविधान है, जिसे हमने बनाया है, और जिसे पूरी शिद्दत, निष्ठा और ताकत से लागू करने जा रहे हैं।’ डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वह मानते थे कि विभाजन संबंधी उत्पन्न परिस्थितियां ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थीं।
डॉ. मुखर्जी महान शिक्षाविद, निरभिमानी देशभक्त, राजनीतिक चिंतक और सामाजिक दृष्टा थे। प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में वह हमेशा देश में पहले पायदान पर खड़े मिलेंगे। डॉ. मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। राजनीति में उनकी सक्रियता के मायने उन आदर्शों का परिपालन था, जो मनुजता के कवच का काम करते हैं। अपने राजनीतिक आचरण में वह आध्यात्मिकता का आचमन करते प्रतीत होते हैं। सार्वजनिक जीवन में उनकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का निस्वार्थ और त्याग-जनित लोकार्पण उन्हें असामान्य बनाता है। वह एक सुविचारित और भारतीय संस्कृति के अनुकूल राजनीतिक दर्शन के प्रणेता थे और उसी के निर्धारित मानदंडों के आधार पर विषयों को तौल कर विरोधियों से वाद-विवाद करते थे। विरोध के लिए विरोध और बोलने के लिए बोलना उनके राजनीतिक आचरण से कोसों दूर था। संसदीय शिष्टाचार के वह कट्टर अनुपालक थे। उनकी आलोचनाएं रचनात्मक होती थीं और सुझाव विचारपूर्ण होते थे। इसीलिए वह अपने समकालीन सांसदों में सबसे ज्यादा सम्मानित और विश्वसनीय नेता थे। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता उनके गंभीर परामर्शों को अनसुना नहीं करते थे।
राजनीतिक मलिनताओं के बीच उनके व्यक्तित्व की उज्ज्वल प्रखरता अलग ही दमकती थी। राजनीति में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे निष्काम, निस्वार्थ, निष्कपट राज-योगी का अवतरण बिरले ही होता है।

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