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पहला सबक मिले मातृभाषा में

आज हम विचार के स्तर पर हर बच्चे की अपनी मातृभाषा में शिक्षा से सहमत हैं। नीतियों में हम कई कदम आगे बढ़ चुके हैं। जमीनी स्तर पर मातृभाषा का गुणगान तो करते हैं मगर शिक्षण में इसे अपनाने से कतराते हैं। सवाल क्रियान्वयन का है कि हम जड़ता छोड़ते हुए सही समझ के सहारे इसे कक्षाओं में स्थान दें।
 

जयपुरMar 07, 2019 / 02:54 pm

dilip chaturvedi

education in india

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के.आर. शर्मा, स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय

विगत दिनों जब पश्चिमी निमाड़ के आदिवासियों के बीच स्थापित लाभरहित आधारशिला लर्निंग सेंटर स्कूल में जाने का मौका मिला, तो पाया कि वहां आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है। इसके पीछे सटीक समझ यह है कि प्रारंभिक कक्षाओं में शिक्षण का माध्यम बच्चों की मातृभाषा होनी चाहिए। हालांकि ऐसे स्कूल सरकारी तंत्र में भी मिलते हैं, पर इनकी संख्या कम है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वहां हिंदी व अंग्रेजी को नजरंदाज किया जा रहा है। वहां के बच्चे न केवल भाषायी क्षमता के मामले में, बल्कि अन्य विषयों में भी बेहतर सीख पाते हैं।

वर्तमान में देश इस समस्या से लगातार जूझ रहा है कि प्रारंभिक कक्षाओं में सीखना-सिखाना बेहतर नहीं हो पा रहा है। शिक्षा जगत नई योजनाएं व रणनीतियां तो बनाता है लेकिन समस्या के समाधान के बजाय वे अधिक गाढ़ी हो जाती हैं। समस्या की वजह में बच्चे व शिक्षक गिनाए जाते हैं, लेकिन असली समस्या की अनदेखी होती रहती है। चूंकि मातृभाषा या घरेलू भाषा में ही बच्चों की भाषायी क्षमता का विकास होता है, उसे तजकर दूसरी या तीसरी भाषा पर छलांग लगाकर अपेक्षित सीखना-समझना नहीं हो पाता। महात्मा गांधी ने आजादी के पहले स्वतंत्र भारत के लिए ‘नई तालीमÓ या ‘बुनियादी शिक्षाÓ की नींव रखी थी। नई तालीम की पहली शर्त यही थी कि बच्चों को मातृभाषा में सीखने के अवसर दिए जाएं। भाषा व संज्ञानात्मक समझ का गहरा रिश्ता है। गांधीजी अंग्रेजी के खिलाफ नहीं थे, बल्कि वे सीखने के माध्यम के रूप में मातृभाषा की पैरवी कर रहे थे। उनका विरोध अंग्रेजीयत से था।

शिक्षण के दौरान समस्याओं के बारे में उत्तर भारत के प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक बताते हैं कि हम बच्चों को हिंदी में पढ़ाते हैं, मगर वे हिंदी जानते ही नहीं। जाहिर है कि हिंदी पट्टी में हम हिंदी को ही मातृभाषा मान बैठे हैं। वजह साफ है कि हमने ऐसे शिक्षक तैयार नहीं किए जो मातृभाषा में शिक्षण की मूल भावना को आत्मसात कर शिक्षण कर सकें। अगर आप मुख्यधारा के शिक्षा जगत से पूछें तो अधिकांश प्रदेश की भाषा ही मातृभाषा मानते हैं, जबकि वास्तविकता इससे जुदा है। दक्षिणी गुजरात के आदिवासी अंचल में कार्य करते हुए मैंने भलीभांति समझा कि वहां के आदिवासी इलाके में लोग कोंकणी बोलते हैं, जो गुजराती से एकदम भिन्न है। मोटे तौर पर मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र निमाड़ की मातृभाषा निमाड़ी है, जबकि निमाड़ के ही दूरस्थ सतपुड़ा वाले क्षेत्र में बारेली व भीली बोली जाती है। इसी तरह हिंदी पट्टी के क्षेत्र राजस्थान में मारवाड़ी, मेवाड़ी, बांगड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, ब्रज, मालवी व रांगडी बोली जाती हैं। अक्सर भाषा व बोली में फर्क किया जाता रहा है। लिपि का न होना इसका एक कारण है। भाषाओं को समृद्ध व बोलियों को निकृष्ट माना जाता है।

मातृभाषा में जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो तुरंत एक और सवाल उठ खड़ा होता है कि हमारे बच्चे हिंदी और अंग्रेजी कब सीखेंगे? इसका हालिया उदाहरण हमें देखने को मिलता है जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर बयान दिया कि बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाना चाहिए। इस मानसिकता का दायरा बहुत बड़ा है, यह जानते हुए भी कि भाषा ही सीखने का प्रमुख आधार है। शिक्षा नीतियों में इसे शुमार किया जाता रहा है, फिर भी ‘कथनी और करनीÓ में भारी फर्क दिखाई देता है।

संविधान के अनुच्छेद 350 ‘क’ के अनुसार किसी भी भाषायी अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे को प्राथमिक स्तर तक अपनी मातृभाषा के जरिए शिक्षण पाने का अधिकार है। इसमें कहा गया है कि भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा, जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। विशेष अधिकारी, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और फिर वह इस संविधान के अधीन भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के लिए अपनी भाषा में शिक्षण के लिए राज्य सरकारों को निर्देशित करेगा। भारतीय संविधान में यह एकमात्र अनुच्छेद है, जो भारत के राष्ट्रपति को विशेष (इग्जेक्यटिव) अधिकार देता है।

विडंबना है कि स्कूली तंत्र बच्चों के स्कूल की दहलीज पर पांव रखते ही बेगानी भाषा में शिक्षण करने लगते हैं ताकि वे वर्चस्व की भाषा में शैक्षिक कारोबार कर सकें। असल में इसी हड़बड़ी के चलते बच्चे भाषायी रूप से ही नहीं, बल्कि अन्य विषयों व चिंतन-मनन के मामले में भी पिछड़ जाते हैं। भाषा को अगर हम व्यापक दायरे में देखें तो यह न केवल संचार का जरिया है, बल्कि सोच-समझ व चिंतन-मनन का आधार है। बिना भाषा के हम सोच नहीं सकते। भाषा ही इंसान को इंसान बनाती है।

बच्चों की अपनी भाषा को नकारने का अर्थ उन्हें व उनकी अस्मिता को नकारना है। देखने में आता है कि दुनिया के कई देशों में अंग्रेजी भाषा बच्चों को पांच-छह कक्षाओं के बाद पढ़ाई जाती है, फिर भी उनकी अंग्रेजी बेहतर होती है। वजह साफ है कि जरूरत भाषा शिक्षण के नए तरीके ईजाद करने की है। स्कूली शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती शिक्षण के माध्यम की ही है। इसके लिए अपनी मातृभाषा छोड़ अंग्रेजी को चुनना सीखने की प्रक्रिया को कुंद कर देता है।

अगर हम जाने-माने भाषा शास्त्री प्रो. रमा कांत अग्निहोत्री की अध्यक्षता में एनसीईआरटी द्वारा तैयार किए गए दस्तावेज ‘भारतीय भाषाओं का शिक्षणÓ पर नजर डालें तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि भाषायी क्षमता के विकास के साथ-साथ ही समझ व ज्ञान बनता है। इसी दस्तावेज में कहा गया है द्ग ‘भारत जैसे देश में सामाजिक सौहार्दता तभी संभव है जब लोग एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को सम्मान दें। इस प्रकार का सम्मान ज्ञान के बिना संभव नहीं है। अन्यथा अज्ञानता, भय, घृणा और असहिष्णुता बढ़ती है, राष्ट्रीय अस्मिता की अखंडता के रास्ते में रोड़े अटकाने का कार्य करती है। अब जबकि हम बहुभाषिकता, संज्ञानात्मक विकास व शैक्षिक उपलब्धियों के बीच सकारात्मक रिश्ता पाते हैं तो स्कूलों में बहुभाषी शिक्षण को बढ़ावा देना बहुत जरूरी है।’

आज हम विचार के स्तर पर बहुभाषिकता या फिर हर बच्चे की अपनी मातृभाषा में शिक्षा से सहमत हैं। नीतियों में हम कई कदम आगे बढ़ चुके हैं। जमीनी स्तर पर मातृभाषा का गुणगान तो करते हैं मगर शिक्षण में इसे अपनाने से कतराते हैं। सवाल क्रियान्वयन का है कि हम जड़ता को त्यागते हुए सही समझ के सहारे इसे कक्षाओं में स्थान दें।

(लेखक, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथ खरगोन (मप्र) के आदिवासी इलाके में कार्यरत। लंबे समय एकलव्य संस्था से जुड़े रहे।)

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