एक व्यक्ति की पूरी उम्र अदालतों के चक्कर लगाते निकल जाती है और फैसला तब जाकर आता है जब उसकी जीवन भर की कमाई खत्म हो जाती है। वह फैसला भी लागू न हो तो ‘न्याय’ हुआ माना जाए, अथवा ‘नहीं मिला’? उच्च न्यायालयों के तो अनगिनत फैसले धूल खा रहे होंगे। चिंता की बात यह है कि किसी फैसला देने वाले न्यायाधीश तथा मुकदमा जीतने वाले वकील दोनों को इसमें अपमान ही नहीं लगता। होना तो यह चाहिए कि न्यायपालिका का फैसला तय समय सीमा में लागू करने व ऐसा न होने पर दण्ड की भी व्यवस्था की जाए। दण्ड किसको मिले, यह तो फाइलों पर आदेशकर्ता के नाम से ही तय हो जाएगा।
दरअसल, न्यायपालिका सरकारी तंत्र को दोषी ही नहीं मानती। सवाल यह है कि जिन टॉवर्स को तोडऩे के आदेश हुए उनके निर्माण की मंजूरी देेने वाले व निरीक्षण की रिपोर्ट देने वाले अधिकारियों को भी बराबर की सजा क्यों नहीं दी जाए? अवैध निर्माण का मामला हो या फिर माफिया को प्रश्रय देने का, अधिकारी ही अपराध में लिप्त नजर आते हैं। क्या ऐसे अधिकारियों का कार्य सदा वैध ही माना जाएगा। उनके लिए तो मानो निलम्बन-ट्रांसफर की खानापूर्ति ही कारावास की सजा है। जब तक सरकारी तंत्र को पक्ष बनाकर बराबर की सजा नहीं होगी, न तो अवैध कार्य रुकेंगे और न ही अदालती फैसलों का पालन हो पाएगा।
न्यायपालिका को अब फैसले लागू करने का तंत्र भी विकसित कर लेना चाहिए। झूठी जानकारियां/घोषणाएं कोर्ट में रखने वालों को भी सजा मिलनी चाहिए। जिस भी अधिकारी विशेष के हस्ताक्षर पाए जाएं, उनको व्यक्तिगत सजा मिलनी चाहिए। आज तो विभाग की आड़ में अधिकारियों को बचा लिया जाता है। ‘भय बिनु होइ न प्रीति’।
प्रश्न यह है कि फैसला लागू कराने को लेकर न्यायालय भी जब एकपक्षीय नजर आएगा, तब जनता का विश्वास चरमराएगा। तब कौन तो फैसला लागू न होने पर अवमानना का केस करेगा और कहां से मुकदमा लडऩे के लिए घर बेचेगा। मंगलवार को ही उच्चतम न्यायालय का एक फैसला आया जिसमें मन्दिर की सम्पत्ति का मालिक देवता को बताते हुए पुजारी को सिर्फ सेवक माना है। आज तो देश में कानून-व्यवस्था का जो हाल है, उसके संदर्भ में भी इसका अर्थ देखना चाहिए। हम पुजारी की पकड़ से तो जमीन को मुक्त कराने की बात कर रहे हैं, किन्तु यहां तो अधिकांश मन्दिरों की जमीनें पहले ही सरकारी मिलीभगत से बिक चुकीं। इन्हें कौन वापस लाएगा? मंदिरों में हालत तो यह है कि भगवान के लिए कभी पोशाक के पैसे नहीं, तो कभी भोग के। मंदिरों की संपत्ति दबाने पर आज तक कितनों को सजा हुई? केवल मन्दिरों के लिए शायद इसीलिए अलग विभाग बनाया है।
दरअसल, सरकारें सेवा करना भूल गईं। व्यापारियों से भी कई गुना अधिक लूट होती दिख रही है। पानी, बिजली, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य कोई भी महकमा अछूता नहीं है। राजस्थान में तो बिजली वितरण कंपनियां औसतन 4.35 रुपए प्रति यूनिट दर से बिजली खरीद रहीं है। जनता के पास पहुंचते-पहुंचते अन्य खर्चों सहित यह दर 8.78 रुपए प्रति यूनिट पर पहुंच रही है। इसके अलावा सरकार बिजली बिल में तीन तरह के सरचार्ज लेकर सालाना 1730 करोड़ रुपए जनता से वसूल रही है। पिछले दो-तीन साल में ही औसतन 1.50 रुपए प्रति यूनिट का भार उपभोक्ताओं पर बढ़ चुका है। इसमें बिजली खरीद राशि, 18 प्रतिशत छीजत, वेतन, कर्ज और अन्य सभी खर्चे शामिल हैं। इसके बावजूद बिजली कंपनियों का घाटा 86 हजार करोड़ रुपए को पार कर गया।
बिजली के साथ-साथ प्रदेश में जल आपूर्ति व्यवस्था भी बेहाल है। पेयजल प्रबंधन के नाम पर सालाना 3800 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। इसमें 2000 करोड़ रुपए बिजली बिल पर और वेतन सहित अन्य खर्चों पर 1100 करोड़ रुपए जा रहे हैं। जलापूर्ति व्यवस्था रखरखाव पर करीब 700 करोड़ रुपए सालाना खर्च हो रहे हैं। जबकि पानी के बिलों से सरकार को उपभोक्ताओं से करीब 550 करोड़ रुपए ही मिल पा रहे हैं। कुप्रबंधन का आलम यह है कि आए दिन पेयजल आपूर्ति लाइनों के लीकेज से पानी की बर्बादी व दूषित जलापूर्ति की खबरें आती हैं।
ये तो सिर्फ बानगी है। सरकारें राजस्व वसूली से अधिक रकम वेतन-भत्तों व कर्ज के ब्याज पर ही खर्च कर रहीं हैं। विकास के लिए भी उधार! क्या लोकतंत्र की यही परिभाषा कानून (संविधान) में प्रदत्त है। भ्रष्टाचार भी सरकारी सिस्टम में घुन की तरह लग गया है। विकास होता दिखता ही नहीं है। ऐसे में भ्रष्टाचार और विकास के कार्यों की निगरानी का दायित्व किसे सौंपा जाए? कहीं तंत्र में लोक की चिन्ता नहीं दिखाई पड़ती। चूंकि ज्यादातर शिकायतें विधायिका व कार्यपालिका से संबंधित होती हैं। आशा की किरण अदालतें ही हैं। अत: न्यायपालिका को ही कमर कसनी होगी।